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तपोरत्नमहोदधि
तपहियातपविधान.
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समूहने शमन करवामां जळ समान छ, जे तप उग्र इंद्रियोना समूहरूपी सर्पने वश करवामां (गारुडी) मंत्राक्षर समान छ, जे तप विनरूपी अंधकारना समूहनो नाश करवामा दिवस तुल्य छ, तथा जे तप लम्धिनी संपदारूप लतार्नु मूळ छे, एवा विविध प्रकारना तपने इच्छा रहितपणे यथाविधि करवो. ८१.
यस्माद्विघ्नपरंपरा विघटते दास्यं सुराः कुर्वते, कामः शाम्यति दाम्यतीन्द्रियगणः कल्याणमुत्सर्पति ।। उन्मीलन्ति महर्द्धयः कलयति धंसं चयः कर्मणां, स्वाधीनं त्रिदिवं शिवं च भजति श्लाघ्यं तपस्तन किम् ॥ ८२ ॥
अर्थ-जे तपथी विघ्ननी श्रेणी नाश पामे छे, देवताओ दासपणुं करे छे, काम शांत थाय छ, इन्द्रियोना समूहनुं दमन थाय छे, कल्याण प्रसरे छ, मोटी ऋद्धि ओ प्राप्त थाय छे, कर्मोनो समूह नाश पामे छ, तया स्वर्ग अने मोक्ष पोताने आधीन थाय छे, एवो तप शुं श्लाघा करवा लायक नथी १८२.
कांतारं न यथेतरो चलयितुं दक्षो दवाग्नि विना, दावाग्निन यथेतरः शमयितुं शक्को विनामोधरम् । निण्णातः पवनं विना निरसितुं नान्यो यथाभोधर, काँघ तपसा विना किमपरं हतुं समर्थस्तथा ।। ८३ ॥
अर्थ-जेम अरण्यने बाळवामां दावाग्नि विना बोजु कोई चतुर ( समर्थ) नथी, तथा जेम दावाग्निने समाववामां मेघ विना बीजु कोइ समर्थ नथी, तथा जेम मेघने वीखेरी नाखवामां पवन विना बीजु कोइ निपुग ( समर्थ) नथी. तेज प्रमाणे कर्मना समूहनो नाश करवामां शुं तप विना बीजं कोई समर्थ छ ? नथीज. ८३.
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