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श्रीचन्द्रीया सामाचारी
॥ १८ ॥
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| भाववेज्जा तेसिं अवर्णेति भववाहिं ॥ ७ ॥ ता तंऽसि भाववेज्जो भवदुक्खानित्रीीडिया तुहं एए । हंदि सरणं पवन्ना मोए| यव्वा पयत्तेणं ॥ ८ ॥ मोएइ अप्पमत्तो पर हियकरणंमि निच्चमुज्जुतो । भवसोक्खाऽपडिबद्धो पडिबद्धो मोक्खसोक्खंमि ॥ ९ ॥ ता एरिसोच्चिय तुमं तहवि य भणिओऽसि समयनीईए । एयावत्थासरिसं भवया निञ्चपि कायव्वं ॥ १० ॥ तुब्भेर्हिपि न एसो संसाराडविमहाकडिलुंमि । सिद्धिपुरसत्थवाहो जत्तेण खर्णपि मोत्तव्यो ॥ ११ ॥ न य पडिकूलेयव्वं वयणं एयरस नाणरासिस्स । एवं गिहवासचाओ जं सफलो होइ तुब्भाणं ॥ १२ ॥ इहरा परमगुरूणं आणाभंगो निसेविओ होइ । विहला य हुंति तंमी नियमा इहलोयपरलोया ॥ १३ ॥ ता कुलबहुनाएणं कज्जे निब्भत्थिहिवि | कर्हिवि । एयस्स पायमूलं आमरणंतं न मोत्तव्वं ॥ १४ ॥ नाणस्स होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचति ॥ १५ ॥ एवं चिय वयइणीणं अणुसट्टिं कुणइ एत्थ आयरिओ । तह अज्जचंदण - मिगावईण साहेइ परमगुणे ॥ १६ ॥ एवं तं उवबूहित्तु तं पइ सीसाणं विणयाइउवएसं दाउं अणुओगविस - जणत्थं काउस्सग्गं दुवेऽवि करेंति, कालस्स पडिक्कमंति, अणुन्नायाणुओगे सूरी निरुद्धं करेइ, जहसत्तीए संघदाणं जिणहरेसु अट्ठाहियाइपूया कायव्वा ॥ आचार्यपदविधिः १२ ॥
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आचार्यपद - विधिः १२
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