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श्रावकधर्मपञ्चाशकचर्णिः ।
णमो वीलयिणं वीयरागायं । श्रेष्ठि देवचंद-लालभाई-जैन पुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः १०२ आय(श्रावकधर्म)पंचाशकचूर्णि
मुखबन्ध।
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" नमिऊण वद्धमाण ” ए पहेला चरणमां, वर्द्धमानस्वामिने नमस्कार करीने १४४४ ग्रन्थना प्रणेता ग्रंथकार याकिणी महत्तरासूनु " भवविरहांक” पादवडे स्वप्रन्थोने अंकित करनार आचार्य श्रीहरिभद्रसूरीश्वर " सावगधर्म समासओ वुच्छं । " ए बीजा चरणथी श्रावकधर्मने संक्षेपथी कहीश, एम दर्शावे छे. एटले पूर्व थयेला आचार्य भगवंतोए विस्तारथी श्रावकधर्म कह्यो होवा छतां पण पोते सरळताथी, श्रावको; श्रावकधर्मने समझीने आदरे ए ज हेतुने लक्ष्यमा राखीने " समासओ" संक्षेपथी कहेवा प्रयत्न आदरे छे. साधुधर्म अने श्रावकधर्म बेउ वर्गने सहेलाईथी समझी आचर, सहेलुं थई पडे एटला खातर ज श्रीमद् उमास्वाति वाचकवर्ये अने श्रीमद् हरिभद्रसूरीश्वरे आवा नाना प्रकारना विषयोवाळा नानां नानां घणां 'प्रकरणो' रचीने जगत पर अर्थात् बेउ वर्ग पर महान् उपकार कर्यों छे. तेवू ज आ पंचाशक ग्रन्थमांर्नु एक पंचाशक ' प्रकरण ज छे.
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