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धावकधर्मपश्चाशकचूर्णिः ।
श्रावकस्य सामाचारी
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॥१४३॥
कहितं-सडी सुण्हाहि संभ, तं गंता मसाण, पवइयाओ य, एगा गुबीणी णियत्ता, तीसे पुत्तो तत्थ देवकुलं कारेति, तं इदाणिं महाकालं जातं, लोगेण परिग्गहितं ॥ अन्नं च-एगो साहू पाओवगओ, सो पडिणीएहिं उकिखवित्ता वंसकुडंगस्स उपरि छोढुं मुक्को, परिसिए य हेट्ठाउ बंसा उट्ठिया, तेहिं सो साहू विद्धो, उक्खिविउं आगासं पाविओ तहवि सम्ममहियासियं ।। तहा-गामासने केई साहुणो पाओवगया, अईव वरिसिएण पाणिएण बुझंता संकरे लग्गा सम्म अहियासिता कालगया ।। तहा-कई बत्तीसं गोडिल्ल या पवइया पाओवगया, पाओवगया य ते दीविएगं पुवासियबहुपिसिएगं दिहा, कल्लं मम एरभक्खं होहिंतित्ति रुकखं विलग्गाविता पिहं पिहं खाणुएसु जीवंतगा चेव ओलइया, संमं अहियासित्ता कालगया ।।
"एवं पाओवगमं निप्पडिकम्मं तु वणियं सुत्ते । तित्थयरगणहरेहि य साहूहि य सेवियमुयारं ॥१॥ संघयणाभावाओ | इय एवं काउ जो उ असमत्थो। सो पुण थोयतरागं कालं संलेहणं काउं॥२॥ इंगिणिमरणं विहिणा भत्तपरिनं च सत्तिओ कुणइ । संवेगभावियमणो पुबुत्तविहीऍ गयसल्लो ॥ ३ ॥" एवं ताव जईणं, सावगस्स धुण इमा सामायारी
आसेवियगिहिधम्मेण किल सावगेण पच्छा निक्खमियवं, एवं सावगधम्मो उजविओ होइ, अह न सकेइ ताहे भत्तपच्चक्खाणकाले संथारगसमणेण होयवं, जइ न सकेइ तो अपच्छिमं मारणंतियसंलेहण छटुट्ठमाइविगिट्टतवोरूवं जहासंभवं साहुविहाणेणं काऊण अणसणं करेइ, भणियं च-"सड्डो पुण संथारगपहजं संपवन्जिय जहुतं । आरोयावेइ तहा महत्वए भावओ एवं ॥१॥ काउं चेइयपूयं जहविहवं पूइउं समणसंघ । उचियं जणोवयारं काउं च कुटुंबसुत्थत्तं ॥ २॥ अणुसासिय पुत्ताई संमाणिय पुरिजणं जहाजुतं । संथारयपवजं परजए सात्रओ विहिणा ॥३॥न पवजह
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॥ १४३॥
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