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चित्र - परिचय
शास्त्रदान :
पुण्यार्जन के लिए धार्मिक पुस्तकों का दान, जैन समाज में सदैव सद्कार्य माना जाता रहा है। ऐसे दान को बहुत आदर प्राप्त है और शिक्षा के महत्व का ही रूप "ज्ञान पूजा" है, जो कार्तिक शुक्ल पंचमी को सम्पन्न होती है । असंख्य चित्रित एवं प्रचित्रित हस्तलिखित पोथियों से भरे जैन ग्रन्थ भण्डारों के पीछे भी ज्ञान के प्रति यही ग्रादर भावना काम कर रही थी। इस क्षेत्र में श्रमण श्रमणियों एवं श्रावक-श्राविकाओं, सब का ही योगदान रहा । श्रमरणों ने अपने प्रभाव से और श्रावकों ने प्रार्थिक साधनों द्वारा सहयोग दिया। श्रमणों के योगदान की चर्चा करते हुए डा० कस्तूरचन्दजी कासलीवाल कहते हैं कि प्राचार्य भद्रबाहु से लेकर १६वीं शताब्दी तक उनमें बड़े प्रभावशाली व्यक्ति हुए, जिनका जनता के ऊपर बड़ा प्रभाव था। वे समग्र देश की पैदल यात्रा करते और जैन बौद्धिक वर्ग में धार्मिक पुस्तकों का महत्व बताते, ग्राचार्य कुंदकुंद उमास्वामी, सिद्धसेन, देवनन्दी, देवधरिण, अकलंक, हरिभद्र सूरि, जिनसेन, गुणभद्र एवं हेमचन्द्र आदि विद्वान श्रमण श्रेष्ठों ने न केवल अपनी कृतियों से शास्त्र भण्डारों की वृद्धि की वरन् जनता में पोथियों के लिखने के महत्व पर उपदेश भी दिये । इन श्रमणों ने भावी पीढ़ी के हितार्थ, अपने जीवन का सर्वोत्तम भाग इन ज्ञान भण्डारों की स्थापना में लगाया ।"
* डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, जैन ग्रन्थ भण्डासं इन राजस्थान, जयपुर १९६७, पृष्ठ ४
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