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कल्पसूत्र ६४
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महासे लपंडुरतरं समागय[महुयर ] सुगंधदाण-वासिय कवोलमूलं देवरायकुंजरवरप्पमाणं पिच्छइ सजल - घण - विपुल - जलहर - गज्जिय-गंभीरचारुघोसं इभं सुभं सव्वलक्खणकयंबियं वरोरु १ ॥३४॥
तओ पुणो धवल-कमल-पत्त-पयराइरेग- रूवप्पभं पहासमुदओवहा - सव्वओ चेव दीवयंतं अइसिरि-भर - पेल्लणा-विसप्पंत-कंत-सोहंतचारुककुहं तणुसुइ- सुकुमाल लोम - निद्धच्छवि थिर-सुबद्ध मंसलोवचियलट्ठ - सुविभत्त-सुंदरंग पिच्छइ घण वट्ट-लट्ठ उक्किट्ठ- विसिट्ठ-तुप्पग्गतिर्खासंगं दंतं सिवं समाणसोभंतसुद्धदंतं वसभं अमियगुणमंगलमुहं २ ॥ ३५॥
तओ पुणो हारनिकर - खीरसागर-संसंककिरण- दगरय-रययमहा
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