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________________ सं० तरंग liDI वईकहा सपियतरंगवईए | सिवगमणं ॥१०३॥ heonaacacaccorncomesince सव्वं । दढसद्धा जिणवयणे जाया संवेगपडिवण्णा ॥३९।। खुड्डीए समं अावि तत्थ घेत्तूण फासुयं भिक्खं । जेणागया पडिगया । | संजम तवजोगगुणधारी॥४०॥ संबोहणत्थहेउं अक्खाणमिणं पवणियं तझं । अवहरउ दरियमखिलं होउ भत्ती जिणिदेसु | ।। ४१ ॥ हाईयपुरीयगच्छे सूरी जो वीरभहनामे(मो) ति । तस्स सीसस्स लिहिया जसेणा गणिनेमिचंदस्स ॥१६४२॥ | इतिश्री तरंगलोला समाप्ता ॥ ग्रन्थाग्रम २०००॥ १ सिरिभद्देसरसूरीसरविरइयकहावलिमहागंथमज्झगयतरंगवईकहासारपजंतभागो सोपओगित्तणेण इह संपादगेण लिहिज्जइ-"भिक्खं च चित्तु ठाणं सह खुडीए गया तरंगवई। समयंमि समुप्पाडियकेवलनाणा य सिद्ध त्ति ॥ से गुरू य पउमदेवो सिद्धो अह परिणिसे द्विसत्थवाहा उदयणराया य गया देवलोगं ति। एवं च कृणिओदयणरजकालपन्भवा तरंगवई वीसमई कहा रम., भद्दा भदेसरमूरिरइय" ति॥ मा.के.सा. ॥१०॥ Jain Education For Private & Personal Use Only N ainelibrary.org
SR No.600009
Book TitleTarangvaikaha
Original Sutra AuthorPadliptsuri, Nemichandrasuri
Author
PublisherJivanbhai Chotabhai Zaveri
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size8 MB
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