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श्रीपञ्चव. ३गणाYण्णा
अनशनविधिः इंगिनीमरणं
॥३०२॥
इंगिणिमरणविहाणं आपञ्चज्जं तु विअडणं दाउं । संलेहणं च काउं जहासमाही जहाकालं ॥१६२३ ॥ पचक्खइ आहारं चउविहं णियमओ गुरुसमीचे । इंगिअदेसम्मि तहा चिट्ठपि हु इंगिअं कुणइ ॥ १६२४॥ उच्चत्तइ परिअत्तइकाइअमाईसु होइ उविभासा। किचंपि अप्पणचिअ जुंजइ नियमेण घिबलिओ॥१६२५॥ भत्तपरिणाएवि हु आपवजं तु विअडणं देइ । पुविं सीअलगोवि हु पच्छा संजायसंवेगो॥१६२६ ॥ वजइ अ संकिलिटुं विसेसओ णवर भावणं एसो। उल्लसिअजीवविरिओ तओ अ आराहणं लहइ १६२७ कंदप्पदेवकिब्बिस अभिओगा आसुरा य सम्मोहा। एसा उ संकिलिट्ठा पंचविहा भावना भणिआ १६२८ | जो संजओऽवि एआसु अप्पसत्थासु वइ कहंचि। सो तबिहेसु गच्छइ सुरेसु भइओ चरणहीणो॥१६२९॥ कंदप्पे कुक्कुइए दवसीले आवि हासणपरे । विम्हावितो अपरं कंदप्पं भावणं कुणइ ॥१६३०॥ पडिदारगाहा।। कहकहकहस्सहसणं कंदप्पो अणिहुआ य संलाबा । कंदप्पकहाकहणं कंदप्पुवएस संसा य॥१६३१॥ दारं॥
भमुहणयणाइएहिं बयणेहि अ तेहिं तेहिं तह चिट्ठ।
कुणइ जह कुकुअं चिअ हसइ परो अप्पणा अहसं ॥ १६३२ ॥ दारं ॥ भासइ दुअंदुअंगच्छई अदपिअव गोविसो सरए। सबदवदवकारी फुट्टइव ठिओवि दप्पेणं ॥ १६३३ ॥ दा.
| वेसवयणेहि हासंजणयंतो अप्पणो परेसिं च । अह हासणोत्ति भण्णइ घयणोच छले णिअच्छंतो॥१६३४॥दा. सुरजालमाइएहिं तु विम्हयं कुणइ तविहजणस्स । तेसु ण विम्हयइ सयं आहदृकुहेडएसुंच॥१६३५ ॥दारं॥
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