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श्रीपञ्चव. ३ गणागुण्णा
द्रव्येऽयोग्यो भावे ऽपि गणदानगुणा
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गीअत्था कयकरणा कुलजा परिणामिआ य गंभीरा।
चिरदिक्खिआ य वुड्डा अजावि पवित्तिणी भणिआ॥ १३१७ ॥ एअगुणविप्पमुक्के जो देइ गणं पवित्तिणिपयं वा । जोऽवि पडिच्छइ नवरं सो पावह आणमाईणि ॥१३१८॥ बूढो गणहरसद्दो गोअमपमुहहिं पुरिससीहेहिं । जो तं ठवह अपत्ते जाणतो सो महापावो ॥१३१९॥ कालोचिअगुणरहिओ जो अठवावेइ तह निविलुपि । णो अणुपालइ सम्मं विसुद्धभावो ससत्तीए ॥१३२०॥ एव पवत्तिणिसद्दो जो बूढो अनचंदणाईहिं । जो तं ठवइ अपत्ते जाणतो सो महापावो ॥ १३२१ ॥ कालोचिअगुणरहिआ जा अठवावेइ तह णिविलुपि । णो अणुपालइ सम्मं विसुद्धभावा ससत्तीए ॥१३२२॥ लोगम्मि अ उवघाओ जत्थ गुरू एरिसा तहिं सीसा । लट्टयरा अण्णेसिं अणायरो होइ अ गुणेसु ॥१३२३॥ गुरुअरगुणमलणाए गुरुअरबंधोत्ति ते परिचत्ता । तदहिअनिओअणाए आणाकोवेण अप्पावि ॥ १३२४॥ तम्हा तित्थयराणं आराहिंतो जहोइअगुणेसु । दिज गणं गीअत्थे णाऊण पवित्तिणिपयं वा ॥ १३२५ ॥ दिक्खावएहिं पत्तो धिइमं पिंडेसणाइविण्णाआ। पेढाइधरो अणुवत्तओ अ जोगो सलद्धीए ॥ १३२६ ॥ एसोवि समं गुरुणा पुढो व गुरुदत्तजोग्गपरिवारो। विहरइ तयभावम्मी विहिणा उ समत्तकप्पेणं ॥१३२७॥ जाओ अ अजाओ अदुविहोकप्पो उहोइ णायवो। एकिकोऽवि अदुविहो समत्तकप्पो अअसमत्तो॥१३२८॥ गीअत्थ जायकप्पो अग्गीओ खलु भवे अजाओ उ। पणगं समत्तकप्पो तदूणगो होइ असमत्तो॥१३२९ ॥
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