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श्रीपञ्चव.
१ प्रव्रज्यासूत्रे
॥ २४४ ॥
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आरंभमंतरेण ण पालणं तस्स संभवह जेणं । तंभि अ पाणवहाई नियमेण हवंति पयडमिणं ॥ ८२ ॥ अणं च तस्स चाओ पाणवहाई व गुरुतरा होजा ? । जइ ताव तस्स चाओ को एत्थ विसेस हे उन्ति १ ॥ ८३ ॥ अह तस्सेव उ पीडा किं णो अण्णेसि पालणे तस्स ? । अह ते पराइ सोऽवि सतत्तर्चिताइ एमेव ॥ ८४ ॥ सिअ तेण कथं कम्मं एसो नो पालगोप्ति किं ण भवे । ता नूणमण्णपालगजोग्गं चिअ तं कथं तेण ॥ ८५ ॥ पीडा अ कहं थे सुहं पंडिआणमिति । जलकट्ठाइगयाण य बहूण घाओ तदच्चाए ॥ ८६ ॥ afar अह ते सिद्धन्ति न तत्थ होइ दोसो उ । इअ सिट्ठिवायपक्खे तच्चाए णणु कहं दोसो १ ॥ ८७ ॥ तो पाणवहाईआ गुरुतरया पावहेउणो नेआ । सयणस्स पालणंमि अ नियमा एइत्ति भणियमिणं ॥ ८८ ॥ एपि पावऊ अप्पयरो णवर तस्स चाउन्ति । सो कह ण होइ तस्सा धम्मत्थं उज्जयमइस्स १ ॥ ८९ ॥ अन्वगमेण भणिअं णउ विहिचाओऽवि तस्स हे उत्ति । सोगाइंमिवि तेसिं मरणे व विसुद्धचित्तस्स ॥ ९० ॥ अपणे भणति धन्ना सयणाइजुआ उ होंति जोग्गत्ति । संतस्स परिबागा जम्हा ते चाइणो हुंति ॥ ९९ ॥
पुण तरिहीणा जाया दिवाओं चैव भिक्खागा। तह तुच्छ भावओ चिअ कहण्णु ते होंति गंभीरा १ ॥ ९२ ॥ जंति अते पायं अहिअयरं पाविऊण पज्जायं । लोगंमि अ उवधाओ भोगाभावा ण चाई य ॥ ९३ ॥ एपि न जुतिखमं विष्णेअं मुद्धविम्हयकरं तु । अविवेगपरिचाया चाई जं निच्छयनयस्स ॥ ९४ ॥ संसारभूओ पवतगो एस पावपक्खमि । एअभि अपरिचत्ते किं कीरइ बचाएणं १ ॥ ९५ ॥
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