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________________ J कठिन हो जायगा, क्योंकि इनके होते एक तो हमको कोई पूछेगा ही नहीं और यदि कहीं बुलाये गये गये भी तो ये लोग हमारी बात ही जमने न देंगे ( मुखाक्रांति मलिन होजाती है ) इत्यादि विचार ही रहे थे, कि उनके नौकरने बीच ही में छेड़ दिया । नौकर- अजी क्या हुवा ? जो आप १० मिनट पहिले तो मूंछपर हाथ फेर रहे और अभी २ अचानक चेहरा मलिन हो गया । देखो ये ही दिन तो कमाईके थे। कहीं चौमासा करते घरका खर्च बचता और लोगों पर भी बजन पडता सो यों ही बिता दिये, अब पर्युषण पर्व ही आगया सो कहीँका कुछ निश्चय हुवा क्या ? दिगम्बर जैन । [ वर्ष १० उड़ती है, मूर्ख ठहराये जाते हैं । इसीसे विचारमें पड़ा हूं कि पयूंषण में कहां जाऊं, जहां पूना प्रतिष्टा भी हो और द्रव्य प्राप्ति भी हो नौकर - पंडितजी, हमारी बात मानों तो कहें। पंडितजी - अरे भाई, हितकी बात होगी तो क्यों नहीं मानेंगे ? जल्दी कहो । नौकर - तब सुनो गुज.... पंडितजी - अहाहा अच्छी बात कही, मैं तो भूल ही गया था । निःसंदेह वह प्रांत बड़ा ही भोला है । भले ही वहां कुछ अंग्रेजी पढ़ने वाले हो गये हैं, परन्तु संस्कृत तथा धर्मशास्त्र पढ़नेवालोंका तो अभाव ही है । यद्यपि वहां पर स्व० सेठ माणिकचंद्रनी तथा दिगम्बर जैन प्रांतिय समाने अपने उपदेशकोंको भ्रमण कराकर सभावोंके अधिवेशन कर करके बहुत कुछ विद्याप्रचारके प्रयत्न किये और बहुत कुछ अंश में सफलता भी हुई है, परन्तु वह सफलता सफलता नहीं कही जा सकी है, क्योंकि वहां लोगोंके हृदय में यही बात भर रही है कि हम तौ व्यापारी हैं इस लिये अपनी जीविकाकी विद्या गुजराठी अंग्रेजी पढ़कर व्यापार व अंग्रेजी नौकरी में लग जाना ही हमारा कर्तव्य है, परम्परासे दर्शन करना चला जाता है करलेना, भक्तिपूर्वक अपने कुलगुरू भट्टारकों, पंडितों आदिका भोजनादिसे सत्कार करना, यही मात्र धर्म है। अधिक पढ़कर कुछ धर्मकी आजीविका नहीं करना है इत्यादि । यही कारण है कि आज सतत् प्रयत्न होनेपर भी गुजरात प्रांतने न तो अपने प्रांत में कोई संस्कृत विद्यालय ( जिसमें उच्च कोटिका साहित्य पंडितजी -भई चेतू, तेरा कहना ठीक है। मैं पहिले तो प्रसन्न हुवा था किचलो चौमासा न सही, अपनमें तो वह ताकत है कि १० दिनमें ही पौबारड़ कर लेंगे परन्तु ज्यों ही इन सुधारकोंकी कर्तन पर ध्यान आया कि सब मजा किरकिरा हो गया । चिट्ठी तो कई हैं, परन्तु करें क्या ? हम तो ठहरे पुराने आदमी अपनी प्रथमानुयोगकी कथायें सुनाकर कुछ व्रत विधान उद्यापन, प्रतिष्ठादि करा लेते और अपना प्रयोजन साध लेते थे। लोग भी बिचारे भोले थे, जो कोई कुछ कहता तो राज़वार्तिक गोमट्टसार समयसारादिका नाम लेकर कोई २ बातें कह देते और वे लोग सत्य मान लेते थे, परन्तु अब तो बोलना ही कठिन हो गया है, शब्द बोलने से पहिले पंक्ति पृष्ट अध्याय बत ना चाहिये, उक्ति निरुक्ति, नय प्रमाण लगाना चाहिये । यदि ऐसा न कर सके तो हंसी .
SR No.543201
Book TitleDigambar Jain 1924 Varsh 17 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1924
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size8 MB
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