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. दिगंबर जैन ।
(१०) है कि दि० कथानकों में दिया हुआ श्वेतांबरो- चार्यने श्वेताम्बर सम्प्रदायकी स्थापना की, ऐसा त्पत्ति समय संशयात्मक है। जैसे कि निम्न मानना चाहिए । परन्तु दर्शनमारमें श्वेताम्बर पृष्ठोंमें दिखाया गया है। दि० कथानकों का सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय विक्रम सं० १३६ वर्णन सत्यको लिए हुए प्रकट होता है, फिर बतलाया गया है । अर्थात् दोनों में कोई ४५० यह मय संशयात्मक क्यों प्रमाणित होता है ? वर्षका अंतर है। यदि यह कहा जाय कि यह क्या विद्वज्जन इस ओर अपने ज्ञानका प्रकाश भद्रबाहु पंचम श्रुकेवली नहीं, किन्तु कोई दूसरे डालेंगे ? हां ! यह जतला देना मी यहां पर ही थे, तो भी बात नहीं बनती। क्योंकि मद्रयोग्य है कि यह देख किसी संप्रदाय प्रति लक्ष्य बाहुचरित्र आदि ग्रंथों में लिखा है कि भद्रबाहु करके नहीं लिखा जा रहा है। मात्र ऐतिहा- श्रुतकेवली ही दक्षिणकी ओर गए थे और राना दिक सत्यके निर्णय के लिए काम काले किए चन्द्रगुप्त उन्हींके शिष्य थे। श्रवणवेल्गुलके जा रहे हैं, जिससे कि दिगंबर-श्वेतांवर विद्वान हेखों में भी इस बातका उल्लेख है। दुर्भिक्ष ही इस विषय पर प्रकाश डालें । अस्तु। रहींके समय में पड़ा था, जिसके कारण मुनि
जैन ग्रंथोंके वर्णनोंसे श्वेताम्बरोंकी उत्पत्तिका योंके आचरण में शिथिलता आई थी। अतएव समय वि० सं० १३६ प्रष्ट होता है। पर भद्रबाहु के साथ विक्रम संवत् १३६ की संगति यह समय प्रमाणित नहीं नान पड़ता । क्योंकि नहीं बैठती।........श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रंथों में भद्रबाह श्रुकेवल का समय श्रुतावतारादि अनेक शान्त्याचार्यके. शिष्य बिनचंद्रका कोई उल्लेख ग्रंथोंके अनुसार वीर निर्भण सं० १६२ के नहीं मिलता जो कि दर्शनसारके कथनानुसार लगभग निश्चित है । १६२ में उनका स्वर्गवास इस प्रदायका प्रवर्तक था। इसके सिवाय य.दे हो चुका था । श्वे ाम्बर गुर्वावलियों में बतलाया गोम्मटसारकी 'इंदो विय संसहयो' आदि गाथाका हुआ समय भी इसी के समीप है । उनके अनुः अर्थ वही माना जाय, जो ट काकारों ने किया मा वीर नि० सं० १७० मै अन् र सर्ग- है, तो वे बिर हम्प्रदायका प्रवर्तक 'इन्द्र' के आइसका है । जति बोलोक का मकान आचार्यको समझना चाहिए । दाहरि के सय मिटर . ११ है। मामले की जो की इन दोको र २१ कर मरूप स्वर १२ १५का दुर्भिक्ष पड़ा था, उसका उल्लेख मा द्रादिको इसका प्रवर्तक बतल ते हैं। इधर ३२श्वेताम् ग्रंथों में है, जिसे दिगम्बर ग्रन्थों में तांबर सम्प्रदायके ग्रंथों में दिगंवर सम्प्रदायक। श्वेताम्बर सम्प्रदाय होने का एक मुख्य कारण प्रवर्तक 'सहश्रमल' भयवा किस के म से शिव माना है । अब यदि भद्रबाहुके शि.प्य शांतया. मुति' नामक साधु बतल.या गया है। पर चाय और उनके शिष्य जिनचन्द्र इन दोनोंके दिगंबर ग्रन्थों में न सहस्रग्लका पता लगता है होनेमें ४० वर्ष मान लिए जाय तो दर्शन- और न शिवभूतिका । क्या इस परसे हम यह सारके अनुसार वीरनि० स० २०० में जिनचंद्रा- अनुपान नहीं कर सकते कि इन दोनों सम्प्रदा.