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________________ अंक १] > दिगंबर जैन. * में मुरादाबाद चले गये । और वहां अना- तनधर्मी, मुसलमान आदि सभी जाति जकी आदतैकी दुकान की, जो आजतक चल और मतोंके लोग आपके मित्र थे । आपरही है । आपने मुरादाबादमें अनेक धर्म व को संतान नहीं हुई इसलिये अपने बड़े जातिसंबंधी कार्य किये। मुन्शीजी और आप भाइके पुत्र वसंतरायको दत्तक पुत्र बना या है । वसंतरायजीका पुत्र नेमिचन्द्र इस दोनोंने मिलकर मुरादाबादमेंही नहीं बल्कि समय संस्कृत पढ़ता है । ७० वर्षकी संपूर्ण जैनसमाजमें उसी समय जागृति उप्तन्न कर दी थी। आप दोनों मित्र बाहर अवस्था तक पंडितजीके शरीरमें रोग या बुढापेका कोई लक्षण नहीं दिखता जमह२ फिर कर जैनधर्मका प्रचार कर था । इस अवस्थामें आप जितना परिश्रम ते थे, जैनसभाएं स्थापित करते और जैन कर लेते थे उतना आजकलके ३० वर्षके धर्मका उपदेश देते थे । और जैन पत्रोंमें युवक भी नहीं कर सकते । सं. १९६१ लेख भी लिखते थे । फिर सं. १९३८ में से आपका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और उभय मित्रोंने "जैन पत्रिका" नामका मा- १९६५ में रोग बहुत बढ़ गया, तब सिक पत्र निकाला था, उससे जैन समाजका अंतिम सयम निकट आया समझकर • बहुत कुछ उपकार हुआ था । भारतवर्षाय संसारिक विषयोंसे चित्त हटा लिया और दि. जैन महासभाके स्थापन होने में आपका सं. १९६६ में ७६ वर्षकी आयुमें आप है सबसे आधिक उद्योग और परिश्रम था, इस __ का पवित्रात्मा अमरलोकमें चला गया । लिये आप महासभाके प्रधान स्थापक सम- आपको इस लोकसे विदा हुए कई बर्ष झे जाते थे। पार्श्वनाथ, आहिक्षेत्र, रामनगर हो गये परंतु आपकी उज्जल कीर्ति अबभी के मन्दिर और मेलेका सारा प्रबंध आपको- संसारमें प्रकाशित है। पंडितजी बड़ेही शांत, ही करना पड़ता था। और अनेक जैन मे गंभीर, धीर, सरल हृदय और प्रमाणिक थे। लोंमें, उत्सवोंमें और बड़ी२ सभाओं में आप आप साधारण धनी थे परंतु आपके घरजाते थे। पर बहुत आदमियोंका भोजनादिसे प्रति___आगराके प्रसिद्ध विद्वान पं. बलदेव- दिन सन्मान होता था । भादोंमें किसी२ दासजी, सुनपतके पं. मथुरादासजी, अली- दिन १००-२०० लोगोंकी भीड़ आपके गढके पं. प्यारेलालजी, पं. उमरावसिंहजी, घर हो जाती थी ! जैनविधार्थीयोंकीभी लाला उग्रसेनजी, साहु सलेखचंदजी, जैन · आपके मकानपर एक खासी पाठशाला समाजके पुराने नेता डिपटी चम्पतरायजी रहती थी । यद्यपि आपसे अनेक विद्यार्थी आदिसे आपकी धार्मिक प्रीति विशेष थी। जैनधर्म पढते रहे परंतुजैनोंके सिवा आर्यसमाजी, इसाई, सना- पं. पन्नालालजी बाकलीवाल
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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