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________________ १३२ ॐ सचित्र खास अंक. Ek [वर्ष ८ श्री सोमदेव कृत 'यशस्तिलक' ऐसे भूखसे कम खानेमें आवें और समयपर प्रसिद्ध काव्य ग्रंथमें कहे हुए नीचे लिखे कुल काम किये जावें। श्लोक गृहस्थ मंडलीको ध्यानमें रखना शुद्ध घी, दूध, दधिके लिये गृहस्थ योग्य है: गाय, भेस पशु पालें और उनसे प्राप्त शरीररक्षा। दूधसे शुद्ध घी, दही, खोया बनाकर खावें। - संसारवार्धेस्तरणैकहेतुम्, बाजारसे घी इत्यादि लेना त्याग देनेसे म असारमप्येन मुशन्ति यस्मात् । ग्वाले पेशेवाले मायादिको रक्खेंगे और न तस्मान् निरीहैः अपि रक्षणीयः, दूधविहीन होनेपर द्रव्यलोभसे कषाईओंके कायः परं मुक्तिलता प्रसूत्यै ॥ १२९ ॥ । __ हाथ बेचेंगे । गृहस्थका धर्म है कि दूध भावार्थ-विद्वानोंने इस असार मनुष्य विहीन व असमर्थ होनेपर भी पशुओंकी देहकोही संसार समुद्रसे तिरनेका एक अपने वृद्ध मातापिताके समान रक्षा करें। मात्र कारण कहा है, इसलिये मुक्तिकी कर्तव्य । वेलको फलवती बनाने के लिये शरीरसे जीवितं कीर्तये यत्र दानाय द्रविणां ग्रहः। उदासीन लोगोंको भी इस देहकी रक्षा वपुः परोपकाराय धर्माय गृहपालनम् ॥९॥ करनी योग्य है । इसलिये शुद्ध खानपान, बाल्यं विद्यागमैर्यत्र यौवनं गुरूसेवया । व्यायाम, शुद्ध साफ वस्त्र, समय पर सर्वसंग परित्यागैः संगतं चरमं वयः ॥१०॥ आहार विहार निहार निद्रा, शुद्ध स्थानमें भावार्थ-गृहस्थ अपने जीवनको यशके शयनासन आदिके नियमोंको जान कर व लिये, द्रव्यको दानके लिये, तनको परोपशरीरमें रोगवर्द्धक कारण क्या हो सक्ते है कारके लिये व गृहधर्मके लिये घरका तथा उन कारणोंके होते ही कौनसा अति पालन करे । शीघ्र उपाय कर लेना इत्यादि हवा, पानी अर्थात्-गृहस्थीको चाहिए कि हिंसा, बगैरह स्वास्थ्य सम्बन्धी बातोंका ज्ञान झठ, चोरी, व्यभिचार, जुआ, नशा आदि. बडोंके अनुभव व वैद्यकीय पुस्तकोंके द्वारा पापोंसे बचे, क्योंकि यही पाप अपयशहरएक गृहस्थ को होना जरुरी है । इसके रुपी कीचडमें लपटनेवाले हैं। द्रव्यका लिये इन बातों पर पूरा ध्यान रहे कि सदा उपार्जन भी आवश्यक जान सन्तोषपूर्वक शुद्ध साफ दुर्गन्ध रहित हवा श्वांस ले- सर्व कार्योंकी सिद्धि के लिये अपने २ नेमें आवे, शुद्ध, साफ असली नदी व पदके योग्य व्यापारादिसे करे, जिन २ कुवेका छना हुआ पानी व्यवहारमें आवे; रीतियोंसे जापान, अमोरिका आदि देश शुद्ध अन्न, घी, दूधसे बनी ताजी चीजें समृद्धिशाली हुए उन२ वाणिज्यकी रीति
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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