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________________ > सचित्र खास अंक. Ek [वर्ष ८ स्माओंको विशुद्धताके प्राप्त करनेका उपदेश फेंक देते हैं। बौद्धोंकेद्वारा म्लानताको प्राप्त दे भवजालसे संरक्षित किया-शेषोंने यह जैनधर्म श्री अकलंकस्वामीके पूर्णजीवनके कुमारावस्थासे गृहस्थावस्थामें, फिर त्यागा- परिश्रमसे ही स्याद्वादरुपी किरणोंको वस्थामें जा अर्थात् धर्म, अर्थ और काम लिये हुए सूर्य्यकी भांति जगमगाने लगा तीनों पुरुषार्थोंको सफल कर अपने पुत्र था । वर्तमानमें भी इन्हीं तीनों दोषोंका । पौत्रादिको राज्यभार सौंप मोक्ष पुरुषार्थकी अधिक प्रचार है जिसके विस्तार फैलाने में सिद्धि करी । कारणभूत नास्तिकताके विचार व हिंसादि ___ यहीं द्विविध जीवन हमारे लिये आदर्श असत्कर्मोको धर्म माननेवाले मतोंका प्रसार हैं । जिनका चित्त प्रारभ्भसे ही वैराग्यकी है। खासकर भारतमें सूक्ष्म तत्वोंका उत्कटतामें भरा हुआ रहता है और विषय ज्ञान लुप्त हो गया है-अध्यात्मचर्चा कषायोंके आक्रमणोंसे रक्षित होता है वे स्वप्नवत् हो गई है, रुढिओं व मिथ्या भव २ साधन किये हुए अर्थ और काम- श्रद्धाओंका जोर बल पकड़ गया है, तथा की ओर उदासीन होकर मोक्ष पुरुषार्थकी मदिरापान, मांसाहार, द्यूतरमन, वेश्या ही सिद्धिमें दत्तचित हो जाते हैं। इस व परस्त्री सेवन तथा पशुवध व रोगवर्द्धक पवित्र अखंड ब्रह्मचर्यमय जीवनको परम- अशुद्ध भोजन व चर्मादि हिंसाको बढ़ानेवाले प्रिय आदर्श मानकर श्री जम्बूस्वामीजी पदार्थों के व्यवहार अतिशय प्रचारमें आ महाराज अंतिम केवली, श्री भद्रबाहुस्वामी गए हैं । धर्मके नामसे करोड़ों पंचेन्द्री श्रुतकेवली, श्री अकलंक निकलंक विद्वद्वरों- पशु प्रतिवर्ष वध किये जाते हैं। विचार ने भी इसीको धार इस पंचमकालमें अपना करके देखा जाय तो यह जमाना आचरणमें जन्म सफल किया। द्वितीय आदर्शके गिरता चला जाता है जिससे बहुत भय है पालक अनेक हुए और होते रहते हैं। कि जो पाशविकवृत्ति श्वान आदि पशु. जब अज्ञान, मिथ्यात्व और अन्यायका ओंमें है, वह मनुष्योंमें भी फैल जाय वहत प्रचार इस दृश्यमान निकटवर्ती और जैसे श्वान आदि पशु जो चाहे खाते, लोकमें होता है, तब परोपकारी आत्माओंमें जिसे चाहे सेवते उसी तरह यह मनुष्य अपना संसारिक सुख बलिदान कर देनेकी समाज भी स्वतंत्र हो जो चाहे खाने, तीव्र भावना उमड़ आती है और वे जिसे चाहे भोगने, यहां तक कि विवाहके विद्यालाभ कर चारित्र धार ब्रह्मचारी रह बंधनमें ही न पड़नेमें लौलीन हो जाय । स्वपरोपकारमें श्री अकलंककी भांति जीवन इस हीन दशाको देखकर जिनके अंतरंगमें बिताते हुए उन तीन दोषोंके मलको दूर यह भाव जगता है कि हम अपने आत्मा
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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