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________________ G HORREENE BE अंक १1 ... दिगंबर जैन. CK ११३ Pradekararat द्वारा सम्पूर्ण जीवोंका कल्याण होता हो जैन धर्मका महत्व वही धर्म वास्तवमें सर्वोत्तम धर्म है। यदि कोई मनुष्य दीर्घदृष्टिसे जैन धर्मके सिद्धांP H ERJEETERATOjarojerjerjee लेखक-बाबू दयाचंद्र गोयलीय जैन बी. ए.] पाई जाती हैं, इस कारणसे यदि हम इसको सर्वोत्तम धर्म कहें तो अनुचित्त न होगा। बसे बीस पच्चीस वर्ष प- सबसे बड़ा सिद्धांत जो जैन धर्मके हले सर्वसाधारण को जैन महत्वको प्रगट करता है, अनेकांत धर्म है। धर्मका कुछ ज्ञान न था, जैन धर्म में प्रत्येक पदार्थ अनेकांत रुप है। हर्षकी बात है कि वर्त- जो कुछ इस धर्ममें कहा गया है अनेकांत मानमें जैन अजैन प्रायः सब ही इस धर्म १७. रुपसे कहा गया है । अनेकांत रुपसे वस्तु के विषयमें अधिक २ ज्ञान प्राप्त करते जाते एकभी है, अनेकभी है, सत्भी है, असत्भी हैं और विशेष हर्षकी बात यह है कि है । भावार्थ-प्रत्येक प्रश्नका उत्तर जैन धर्म आजकल अंग्रेजी राज्यमें लोगोंके हृदयोंसे अनेकांत रुपसे देता है, एकांतसे नहीं देता। अब प्रश्न यह होता है कि अनेकांत किसका पक्षपात निकलता जाता है। पहले फूट और पक्षपातके कारण प्रायः लोगोंका जैन नाम है? इसका उत्तर यह है कि अनेकांत धर्मके विषयमें अच्छा ख्याल न था, परंतु वह धर्म है जिसके अनुसार पदार्थों का स्व रुप ऊनके गुणस्वभावकी अपेक्षा भिन्न भिन्न__ अब विचारस्वाधीनता और शिक्षाके समय रुप वर्णन किया जाता है अर्थात् जब कोई में बहुतसे मनुष्य इसकी मुक्त कंठसे प्रशंसा ॥ बात किसी पदार्थके विषयमें कही जाती है, तो करते हैं। मेरे बिचारमें यह धर्म संसारभर- वह उस पदार्थके उस गुण वा पर्यायकी । के धर्मोंसे उत्तम है । इस बातके देखनेके अपेक्षा ही कही जाती है कि जिससे उसका लिए कि अमुक धर्म कैसा है उस धर्म के सम्बंध है। गुणपर्यायकी अपेक्षाके बिना तत्वों और सिद्धांतोंके देखनेकी आवश्यकता कोई बात पूर्णरुपसे किसी पदार्थके विषहोती है । जो धर्म प्राकृतिक नियमोंपर यमें नहीं कही जाती है। इसके विपरीत स्थिर हो, जिस धर्मके सिद्धांत युक्ति और एकांत वह धर्म है कि जो किसी बातका प्रमाणसे खंडित न हो सकते हों, जिनमें जो किसी पदार्थके किसी गुण वा पर्याय स्वपरविरोध न पाया जाता हो, जो जीव- विषेशसे सम्बंध रखती हो, उस गुण वा मात्रको शांतिदाता और हितकर हो, जिसके पर्यायकी अपेक्षाके बिना ही पूर्ण रुपसे
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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