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________________ अंक १] १०९ >>> दिगंबर जैन. सक्ते हैं, कारण जबतक ऊचे दर्जेका उसी भाषा में हो जावे, तो देशका प्रत्येक इंग्रेजी न पढ़े, वहां तक तो इन पुस्तकों बालक भी इन विद्यावों, कलावों आदि से को पढ़ ही नहीं सक्ता हैं, और इस वंचित न रहे । प्रकार इंग्रेजीकी उच्च शिक्षा प्राप्त करने ( ग्रेजुएट होने) के लिये बहुत समय तथा रुपयों की आवश्यकता है, इसलिये जन साधारण तो पढ़ने से रहे। उनके पास इतना द्रव्य कहां, जो पढ़ सकें ? वे तो पेट भरने के अनुमान थोड़ा बहुत पढ़कर या विना ही पढ़े, नौकरी व मजदूरी करने लगते हैं । मध्यम दर्जेमेंसे जिनको सामर्थ्य है, यदि वे पढ़ते हैं भी तो आधी आयु तो प्रायः पढ़नेमें चली जाती है, पश्चात् पड़ता है, तब लाचार होकर इधर उधर नौकरी की तलाश करने लगते हैं । कदाचित् किसीने कुछ नवीन आविष्कार ( विज्ञान ) कर प्रगट किया भी, तो द्रव्य के वसे उनकी वही दशा होती है, जैसे व सोच अभा न्याको पुत्रप्राप्ति की भी नहीं कर सक्ती, है ही नहीं और नहीं इच्छा होने पर अर्थात् पासमें द्रव्य धनी सहायता देते नहीं हैं, तब मनके विचार मनहीमें रह जाते हैं । श्रीमानों लड़के पढ़ते ही और पढ़े तो भी वे अपने विषयों में लोलुप हो जाते हैं, कि समुद्रके खारे जल के समान किसी कार्यके भी नहीं रहते हैं, इत्यादि यदि हमारी देशभाषा एक होवे और सब पुस्तकोंका उल्था ऐसे अभी ऊपर कही हुई अड़चनों के सिवाय एक यह भी अड़चन है कि हमारे विद्यार्थियों को दुहरी महिनत (परिश्रम) करना पड़ती है । एक तो विदेशी भाषा समझने व रटने की और दूसरे उन विषयोंकी, तब उनकी सारी शक्ति तो यहीं इतिश्री हो जाती है । फिर आगे बिचारे क्या करेंगे ? देखते नहीं हो, इन वर्तमानके पढ़े लिखों को ? कोईका मगज ( शिर) बिगड़ रहा है, तो कोई मूत्र रोगसे पीड़ित हो गया है, कोई पाचनशक्तिके बिगड़ने से दुःख पा रहा है, किसीको धातुविकार दृष्टिगत होता है और आखोंपर चशमा (ऐनक) पहिरना तो अब सहज हो गया है, इसे तो कमजोरीकी गिनती ही नहीं दी जाती है इत्यादि अवस्था होती है, सो क्यों ? इसका कारण यह है कि परिश्रम तो अधिक करना पड़े और आराम कम मिले । खानपान आदि कठि नाइयां झेलनी पड़े, तब अवश्य ही यह दशा होगी । भला कहो, जिन बिचारोंकी विद्यार्थी अवस्था में ही यह दशा हो जावे, भविष्य में कहां तक हमारे देशका भला कर सकेंगे ? यदि वे अपनी गुज़र कर लें, तो भी कुशल है, ताकि उनका बोझा दूसरों पर न पड़े । और भी आप देखेंगे, वे
SR No.543085
Book TitleDigambar Jain 1915 Varsh 08 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1915
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Digambar Jain, & India
File Size19 MB
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