SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३) किसी का दर्द उसकी दृष्टि में आता तो उसको शीघ्र दूर करने के लिये वह अधिक प्रयत्न सब से पहिले करती । इसी तरह उसने अपने डाक्टरी जीवन को व्यतीत किया । भविष्य में उसका यह परोपकारी स्वभाव उसकी शाखा के बालकों को बहुत ही उपकारक हुआ । जिस तन्मयता से वह डाक्टरी का व्यवसाय करती थी उसी तन्मयता, एकाग्रता, खन्त और असाधारण उद्योग से उसने इस नये कार्य में अपना चित्त लगाया। सुबह आठ बजे से रात को सात बजे तक वह मन्द बुद्धि वाले बच्चों को सिखाने में अपना समय पूरा करती थी । सारा दिन उन बच्चों के उद्धार के लिये अपनी बुद्धि और शक्ति का अधिक से अधिक उपयोग किये बाद रात को एक विज्ञान - शास्त्री के सदृश अपने सारे दिन के कार्य की समालोचना करती थी और साथ अपने कार्य - अवलोकन और कार्य का नोट किया करती थी । इतना ही नहीं परन्तु अपने अवलोकन के परिणामों का वर्गीकरण किया करती थी और इस विषय में जिन २ लोगों ने पुस्तकें लिखी थीं और उन सब की पुस्तकों को ध्यान पूर्वक पढ़ा करती थी और अपने आविष्कार में कौन २ से मददगार हो सकते हैं उनको ढूंढ निकालती थी । इस कार्य-पद्धति में ही उसके विजय का रहस्य छिपा हुआ था । ये दिन उसके लिये सम्पूर्ण शान्ति के थे। इन दिनों में वह अप्रसिद्ध थी और संसार उसको नहीं पहिचानता था। अतएव वह अपूर्व तल्लीनता और सुख से अपने प्रयोग किया करती थी । इसी समय में उसने लंडन और पैरीस जाकर मूढ़ बच्चों की शालाओं और प्रचलित पद्धतियों का स्वयं अभ्यास किया और अपने ज्ञान के आधार पर प्रचलित सिद्धान्तों से जो अधिक बुद्धि गम्य थे उनका भी अभ्यास किया । इस विचार से उसके अन्दर एक अजीव प्रकार की श्रद्धा उत्पन्न हुई और उसके अन्तर में एक नवीन दशा व नये कार्य में जाने की स्वयं स्फूर्ति हुई । शीघ्र ही उसने समधारण बालकों की शालाओं, उसकी व्यवस्था और उसमें चालू शिक्षा पद्धति का अभ्यास करने का निश्चय किया और साथ ही साथ रोम की विद्यापीठ में वह तत्वज्ञान के विद्यार्थी के तौर पर दाखिल हुई और प्रयोगिक मानसशास्त्र का विषय उसने मुख्यतः लिया । उसने बालमानस शास्त्र में स्नातक की पदवी प्राप्त की। अब उसने पुरानी शालाओं के देखने का और उनकी सड़ी हुई पद्धति का सम्पूर्ण ज्ञान हासिल करने का काम
SR No.541510
Book TitleMahavir 1934 01 to 12 and 1935 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi and Others
PublisherAkhil Bharatvarshiya Porwal Maha Sammelan
Publication Year1934
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Mahavir, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy