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________________ प्राचीन वरमाण [वर्धमान] तीर्थ मुनिराज श्री निरंजनविजयजी महाराज मैने कुछ समय पहीले जषके जिरावला तीर्थ कलाकृति दृष्टिगोचर होती है दहेरासरजी में में आयंबिल कि चैत्री ओली करवाने के लिये देलवाडा की स्पर्धा करे वैसे कलात्मक काम ध्रांगध्रा ( सौराष्ट्र ) से मारवाड कि और विहार बिस्मार हालत में दिखते है. दो काउस्सग्गीये किया तो बिच मार्ग में वर्धमान तीर्थ (वरमाण) प्रभु श्री पार्श्वनाथजी के जैन शासन की तरह देखा. मुझे आनंद और दुःख हुआ, हर्ष इस अडग खडे है. भगवान आदीश्वर प्रभुकी सुन्दर बातसे हुआ कि प्रभु कि प्रतिमाए जो बडे तीथों प्रतिमा शनि के पत्थर कि कुरी हुरी हुई नजर में दृष्टिगोचर नहिं होती जैसी भव्य आकर्षक आती है. मिलों तक वर्धमान तीर्थ के छत दीवाले व सुन्दर प्रतिमा देखनेका सुअवसर प्राप्त हुआ। व स्थम्भो गुम्बज के टुकडे पाए जाते है. हिमा जिरावला तीर्थ में आकर प्रभु श्री पार्श्व- लय कि तरह प्रभु महावीर कि प्रतिमा जिनालय नाथजी कि प्रतिमा देखकर दुःख हुआ वर्धमान में और प्रतिमाओं की छोटी बनाये अचल खडी तीर्थ में देखी हुई श्रमण भगवान महावीर प्रभु की है. खुलि आंखो जिसने ये प्रतिमा देख ली हो प्रतिमाके साथ मेरे चर्मचक्षुओने प्रभुश्री पार्श्व- वो आंखे मुन्दने पर भि भूल नहि सकता, इतर नाथजी की प्रतिमाकी तुलना कि. सदियो जुना जैनी भि यहां काफि आते है वो इसका क्या जिरावला पार्श्वनाथ का नाम आज कौन नहि समझ कर हाथ जोडते है ? छोटासा गाम दारिद्र जानता ? मूलनायक श्री नेमनाथ प्रभु को बनाये का नमूना है. फिरभि ये अनमोल रत्न पर गये है। वो इस हेतु से क्यु न हो? कि जब मुस्ताक है. आबालवृद्ध सभि भगवान महावीर भगवान श्री पार्श्वनाथजी कि प्रतिमा है ही के चरणो में जाते है. अपने अपने इष्टका नाम नहि तो मूलनायक की प्रतिमा सुन्दर मिले उसे लेकर उनको हाथ जोडते है काइ इसे अवधूत क्यों न बनाये ? मौजुदा रंगमंडप प्रवेशद्वार शंकर कहता है वो कोई राम व ब्रह्मादि कहमूल व. पबासन जितनी बडी प्रतिमा के लिये लाता है सभों को सभी रूप से दर्शन देनेवाले होने चाहिये उतनी बडी श्री नेम प्रभुकि प्रतिमा है. बहूरूप महाबीर का भला कैसे भुले गांवमे है: छोटी छोटी कुछ प्रतिमांए पार्श्वनाथ प्रभुकि सिर्फ ३ ही घर जैनों के है. ये स्थान को किसी कम ज्यादा सुन्दर वहां देखने मिली है, किन्तु की सहायता नहि मीला. महावीर को किसकि जो भावना व अभिलाषा प्रभु पार्श्वनाथ कि सहायता कि जरुरत है? बिना प्रतिमाओ के स्थानो प्रतिमा देखने कि यात्रीगण रखते हैं वो वहां कि हिन्दुस्थान में कमी नहीं व एसे स्थानों के पाइ जाती नहि. अधीक पार्श्व प्रभुकि प्राचीन प्रतिमा लिये चन्दा भि बटोरा जाता है, और भाविक खुले जिसे कहते हैं वो कोई विचित्र पदार्थों में ढकी हाथो देते हैं, नहि सोचते आराध्य प्रतिमा कहां हुई नजर में आती है और उसको जिराबला से आयगी और कहां से निकलेगी. विना दुलहा पार्श्वनाथ की प्रतिमा मानना पडता है. यात्री, कि बरात कोई काई स्थान पर दृष्टिगोचर बगीचा, अर्ट धर्मशाला व मंदिरजी कि तारिफ होती है। करता हुआ अपने घर लौटता है. मैरा ये तीर्थ के लिये कोइ हठाग्रह नहि. ये वर्धमान तीर्थ में श्रमण प्रभु महावीर भगवान सीर्थ का जिर्णोद्धार हो जाय इसे मुझे व्यक्तिगत कि प्रतिमा जो दे सकती है वो शायद ही वो लाभ हानि नहीं. किन्तु ये प्रतिमा जिसके लिये चुने मिट्टी व पत्थरे कि बडी दीवाले दें. प्राचीन मुझे इतना ममत्व है उसे जैन आलम एक बार कलाके अवशेष टुटे फुटे बिखरे पडे हैं. एक मिट्टी देखे. सुव्यवस्थित रूप से बिठाया जाय. धजा दंड का ढेर है भग्नहृदया कि तरह उसमें प्राचीन इत्यादि आवश्यक किया जाय तो हानी से लाभ
SR No.539174
Book TitleKalyan 1958 06 Ank 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomchand D Shah
PublisherKalyan Prakashan Mandir
Publication Year1958
Total Pages50
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Kalyan, & India
File Size11 MB
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