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(३) शास्त्र के विरुद्ध अनेक आचरणाए अपने धर्ममार्ग में हुई हैं, जिनके दृष्टान्त आगे जाकर पढेगे,
.. (४) इस प्रकार के सैकडो उदाहरण बने है, परन्तु उन सबको लिखने से एक ग्रन्थ बन जायगा, इसलिये थोडे से दृष्टान्त आगे लिखे जाएगे। ___(५) हमको पट्टक अथवा उनके मसौदे करने में रस नहीं है, जिनको ऐसी बातों में रस हो, वे स्वयं मसौदा करलें।
अनागामिक आचरणाएं . (१) भद्रबाहुस्वामी के समय की वाचना में आगम लिखे गए तब केवलाअनुयोगधर को कालिक प्रत का एक एक पु
पस्तक अपनी निश्रा में रखने का अधिकार दिया गया था। उसके सिवा अपनी निश्रा में पांच जात के पुस्तकों में से एक भी पुस्तक अपने पास रखने वाले साधु को प्रायश्चित्त लेना पडता था। आज आचार्य और सामान्य साधु भी अपने नाम से ज्ञानमन्दिर बनवाते है, यह बात आगम और आचरण देगनों से विरुद्ध है।
(२) विक्रम की चतुर्थ शती में जब मथुरा में आगम व्यवस्थित किये गए तब दशम अंग "प्रश्नव्याकरण' का मूल विषय जो १०८ प्रकार के प्रश्न, अप्रश्न, प्रश्नाप्रश्न और अगुष्ठ प्रश्न, आदर्श प्रश्न आदि प्रश्न विद्याओं के रुप में था, उसे बदलकर उस स्थान में पांच आश्रव, पांच संवरात्मक प्रश्न व्याकरण कायम किया। यह बात आगमानुसारिणी नहीं है पर समय विशेष को ध्यान में लेकर पूर्वाचार्यों द्वारा किया हुआ परिवर्तन है।
. (३) पूर्व काल में साधु का केवल एक पात्रक रखने का विधान था, परन्तु आर्यरक्षितसूरिजीने मूल पात्र ने कुछ छोटा “मात्रक" नामक पात्रक चातुर्मास्य में रखने की आज्ञा दी थी, यह आचरण है, परन्तु आजकल एक-एक साधु तीन-तीन पात्र सदा काल रखता है, यह आगम और आचरण दोनों से विरुद्ध ।
(४) आर्यरक्षितसूरिजी के पहले प्रत्येक साधु एक-एक पात्र रखता था और गोचरी के टाइम में पात्र दा हेने हाथ में रखकर उपर पडले ढांकता था और पडलों का दूसरा छोर दाहिने कंधे पर डालता था, पर आयरक्षितसूरिजी के समय से गोचरी झोलीमें लाने का शुरु हुआ और भिक्षा लाने की प्राचीन पद्धति उठ गई आज की भिक्षाचर्या-पद्धति आगम और आचरण दोनों से जुदी. पडती है।..
(५) 'पूर्व काल में साधु कल्प (वस्त्रकम्बल) ओढते न थे, गोचरी स्थण्डिलभूमि आदि कार्यार्थ उपाश्रय से बाहर जाते तब उपधि अन्य किसी साधु को भलाकर जाते, यदि कोई सम्भालने वाला न मिलता तो उसे अपने कन्धों पर रखकर साथ लेजाते थे, वर्तमान समय में वस्त्रादि ओढकर जाते है, यह आचरण है, शास्त्र नहीं।. .
(६) पर्वकाल में जैन साधु लज्जानिवारणार्थ एक वस्त्र का टुकडा. कमर के अगले भाग में लटकाते थे, जो “अग्रावतार" कहलाता था, परन्तु वर्तमान में अग्रावतार के स्थानपर "चोलपट्टक" बांधते है, जो अर्वाचीन रीति है।
(७) शास्त्र में भिक्षा, स्थण्डिलगमन, विहार आदि के लिए दिन का तीसरा प्रहर नियत है,. परन्तु आजकल ये सबकाम दिवस के प्रथम प्रहर में ही होते है और विहार तो बहुधा रात्रि के चौथे प्रहर में होता है।
(८) पूर्वकाल में भिक्षाचर्यार्थ निकलते उसी वक्त उपयोग का कायोत्सर्ग करते थे, परन्तु अब
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