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तीर्थ युद्धशान्तिनु' 'भिशन.'
यत द्वारा ही ऐसे झगडों को तै करा लेना चाहिये । परन्तु जो महाशय इस राय से सहमत नहीं है और अदालत द्वारा लडना ही श्रेष्ठ समझते हैं, उन्हें हम उन के इस उदारता के कार्य से रोकना नहीं चाहते, परन्तु इतनी प्रार्थना अवश्य करते है कि मुकदमे का खर्च वे अपने पास से करें । बेचारी जाति को रुपये का दुरुपयोग करने के लिये बाधित न करें । वह जाति जिसे रुपये का हिसाब भी नहीं समझाया जाता, यह कदापि नहीं चाहती कि १ रु. के स्थान में १००) खर्च हों । यदि आप लोग इसी मार्ग का अवलम्बन करना चाहते हैं, तो इस के खर्च का भार भी आप अपने सिर पर उठाइये । आप लोगों में बडे बडे धनाढ्य हैं, देखें कौन उदारता दिखलाते हैं और कबतक लड कर अपनी तीर्थ भक्ति को दिखलाते हैं । दूसरों की निंदा करने, दूसरोंको धर्मशून्य बतलाने से आप घ मात्मा नहीं बन सकते । धर्म ग्रंथों को रट लेने से, दस बीस लाख के धनी हो जाने से कोई धर्मात्मा नही बन सकता । धर्मात्मा वह है जिस ने कुछ अपने मन बचन काय को अपने वश में किया हो, विषय वासनाओं को मंद किया हो, कपायों को शमन किया हो । जिनकों विषय वासनाओं से कभी छुट्टी नहीं मिलती वे चाहे कितने ही विद्वान और धनवान हों धर्मात्मा नहीं कहला सकते ।
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"अतएव पाठक गण विचार करें और इस बात के लिये योग करें कि दिगम्बरी श्वेताम्बरी दोनों में परस्पर में फैसला हो जाय और मुकदमेबाजी में फिजूल खर्च न हो ।”
(3) मनुं सोऽप्रिय हैन पत्र 'सांभवर्तमान' पारसी માલેકીતુ હોવા છતાં, જે દિવસે મ્હારી ‘અપીલ’ બહાર પડી તે જ