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________________ श्री भद्रसेन • १०८ धर्म थान शासन (अपाडs) विशेषis - du४-११-२००८, मंगलवार .वर्ष - २१ . s-1 कल्याण साध लूं । बिना कोई प्रयत्न से अचानक ऐसा उत्तम से नूतन मुनि के सिर पर अपने डण्डे का वार करते हैं, 'तुझे मार्ग मझे मिल गया । मेरा तो श्रेय हो ही गया।' ऐसी निर्मल दिखता नहीं है। मेरी इस वृद्धावस्था में भी तू इस प्रकार दु:ख | विचारणा करके वह आचार्यश्री को प्रार्थना करता है, दे रहा है।' डण्डे की चोट से और केश लोचन भी उसी दिन 'भगवान ! आपने कृपा करके मुझे संसारसागर से तारा है, किया होने के कारण नूतन मुनि के गंजे सिर में से खुन आने | आप विधिपूर्वक व्रत देकर मुझे कृतार्थ करिये। आपके मुझपर लगता है। इस अवस्था में भी नवदीक्षीत भद्रसेन मुनि समता अनंत उपकार है। धर कर सोचते है, धिक्कार है मेरी आत्मा को, मैंने पूज्यश्री को ततश्चात् चंडरुद्राचार्य उसे विधिपूर्वक व्रत ग्रहण प्रथम दिन पर ही, गुरुदेव को कष्ट पहुँचाया । मुझे धीरे धीरे कराते है और भद्रसेन अब भद्रसेन मनि बनते हैं। नवदीक्षीत संभल संभल कर चलना चाहिए था । ऐसे गुणरत्नसागर जैसे| अब सोचते हैं कि 'मेरे माँ-बाप, सास, ससुर, पत्नी वदगैरह गुरुदेव को मैने रोष का निमित्त दे दिया । इसमें उनका कोई उज्जैन में ही हैं, वे यहाँ आकर मुझे दीक्षा छुड़वाकर घर ले दोष नहीं है। दोषित तो वाकई मैं हूँ।' इस प्रकार हृदय की जायेंगे, परंतु किसी भी प्रकार से मुझे यह धर्म छोड़ना नहीं है। सरलता से भद्रिक ऐसे नूतन मुनि अपने दोषों को देखकर शुभा इसलिए गुरुमहाराज को हाथ जोड़कर बिनती करते है, ध्यान में डूब गये और क्षपक श्रेणी में पहुंचते ही उन्होने 'भगवान मेर कुटुम्ब बड़ा है । उनको ये युवक खबर देंगे, वे केवलज्ञान पाया । अब वे कंधो पर बैठे गुरुमहाराज को थोडा मुझे यहाँ लेने आयेंगे और जबरजस्तीपूर्वक यहाँ से ले जाने का सा भी धक्का न लगे उस प्रकार से सीधे रास्ते पर ले जाते हैं। प्रयत्न करेंगे । आपका गच्छ तो बहत बड़ा है । सबके साथ आचार्य महाराज कहते है, 'अब तू वाकई में ठिकाने आ गया। शीघ्र विहार तो हो नहीं पायेगा। लेकिन हम दोनों को यहाँ से संसार में ऐसा नियम है कि चमत्कार के बिना नमस्कार नहीं चपके चल देना चाहिये । सब विहार करेंगे तो लोग आयेंगे और डंडा पडा तो कैसा सीधा हो गया । क्यों बराबर है ना ? अब हमें अटकायेंगे, तो कृपा करके जल्दी कीजिये।' सीधा चलने लगान।' आवार्य महाराज नूतनदीक्षित मुनि को कहते है, नवदीक्षित कहते है, 'भगवान ! यह सब आपकी 'तेरी बात सही है। तू एक बार रास्ता देखकर आ । इस समय कृपा का फल है । रास्ता बराबर जान सकता हूँ, यह आपश्री शाम होने आई है। अंधेरा हो जायेगा तो रास्ते में तकलीफ की मधू दृष्टि एवं योग के ज्ञान से पता चल जाता है। यह खड़ी हो जायेगी।' भद्रसेन मुनि थोडा दूर जाकर रास्ता देख सुनकर आचार्य चकित हो जाते है और सोचते है कि नूतन आते है और आचार्यश्री को लेकर उस स्थानक से निकाल दीक्षीत कहता है कि ज्ञान से जान सकता है तो उसे कौन सा जाते है । गुरुमहाराज वृद्ध हैं और आँखें कमजोर हैं इसलिए ! ज्ञान होगा? अब थोड़ा थोड़ा उजाला होने से, गुरुमाराज को भद्रसेन मुनि उन्हें कंधो पर बिठाकर जल्दी जल्दी . . शिष्य के सिर पर खून निकला हुआ दिखता है, वे पूछने विहार करते हैं। रास्ता उबडखाबड होने से कंधे है, 'मेरे डण्डे की चोट से तूझे यह खून तो नई पर बैठे महाराज को हिचकोले आते है और वे निकला न ? लेकिन भद्रसेन मौन रहते हैं, नूतन दीक्षित को बराबर चलने के लिए चेतावनी देते आचार्य पूछते हैं, 'तुझे सीधा रास्तादीखा तो कौन हैं। अंधेरा बढ़ते रास्ते के खड्डे में पांव धंसने से भद्रसेन मुनि ज्ञानयोग से ? रास्ते में तूझे कुछ स्खलना तो नहीं आई। कई बार सन्तुलन गंवा देते है। इस कारण आचार्य अति क्रोध | ना? वत्स ! क्या हकीकत है ? वह तू मुझे यथार्थ बता दे वि .
SR No.537274
Book TitleJain Shasan 2008 2009 Book 21 Ank 01 to 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2008
Total Pages228
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size11 MB
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