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________________ श्री नैनशासन (अहपाडीs) આચારભ્રઢતાથી શાસનનું પતન आज से लगभग ३० वर्ष पूर्व आचार्य सम्राट श्री आनन्दऋषि जी म. सा. ने श्रमण संघ व्यवस्था के बारे में कुछ घोषणाएं की थी जो तरुण जैन २३-११-१९७१ के मुख पुष्ठ पर छपी। उनमें एक घोषणा थी "आगम विरुद्ध और मुनि परम्परा के विरुद्ध प्रचार करने वाले तथा आचरण करने वाले (जैसे- १. चम्पल पहनना २ बिजली का उपयोग करना ३. पंखा सेवन करना ४ फ्लश में पंचमी जाना ( निपटना ) ५. लोच न करना ६. नल के पानी का उपयोग करना) संत सतियों के साथ केवल मैत्री सम्बन्ध रह सकेगा । " यानी इनके साथ सांभोगिक सम्बन्ध न रहकर मात्र मैत्री संबंध रहेगा । इस घोषणा का समाज में बडा उहापोह हुआ और चारों ओर से घोर विरोध हुआ कि इन दोषों के सेवन करने वालों का साधु, साध्वी कहना सर्वथा अनुचित है, वे तो सम्यगद्रष्टि की गिनती में भी नहीं आ सकते हैं। क्योंकि गुणस्थान द्वार के थोकडे में पहले गुणस्थान का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि वीतराग देव के मार्ग से जो विपरीत प्ररूपणा करे वह प्रथम गुणस्थान का स्वामी होता है। अतएव आचार्य श्री को अपनी इस घोषणा को वापिस लेना चाहिये । आधार श्री ताथी..... 48:992vis: 33 dl. 9-09-20001 बन्धुओ! उक्त छह बातों का सेवन करने वालों को जैन संत-सती के नाम से सम्बोधन करने एवं उनके साथ मैत्री सम्बन्ध रखने का समाज ने घोर विरोध किया । परिणाम स्वरुप आचार्य श्री को अपनी धोषणा पर पुनः विचार करना पडा । आज स्थिति उससे कई गुणा हीन अवस्था में पहुंच चुकी है। उनका उत्तराधिकरी कहलाने वाले वर्ग के अनाचार सेवन की फेहरिस्त छह से बढ कर साठ से भी अधिक तक पहुँच चुकी है। वे भी सामान्य नहीं निकृष्ट श्राणी की। इतनी हीनतम स्थिति पर पहुँचने के बावजुद भी हमारा स्थानकवासी समाज सत्वहीन बनकर मौन साधे बेठा है ? जहाँ सम्पूर्ण स्थानकवासी परम्परा की चुनौती ही नहीं प्रत्युत उसकी अस्तिमा दाव पर लग रही हो। वहाँ समाज का चूं तक न करना आश्चर्य की बात है । "अति सर्वत्र वर्जित" वाली युक्ति हमारे यहाँ चरितार्थ हो रही है। जो कार्य कलाप प्रभु महावीर के उत्तराधिकरी के वेष में करना पूर्ण निषेध है, उनका आचरण खुले रुप में इस वर्ग द्वारा किए जा रहे हैं, जो सीमा बाहर 'अति' की श्रेणी में है। उनकी इतिश्री तो होना निश्चित है। हाँ कुछ समय ओर लग सकता है। धर्म प्राण लोंकाशाह को हुए लगभग ५०० वर्ष हो चुके हैं। यदि समाज ने बढती हुई दुषित प्रवृत्तियों के रोकथाम के लिए कारगर कदम नहीं उठाया तो निश्चत जिहाद (धर्मयुद्ध) छिडेगा । पुनः कोई लोंका शाह सामने आवेगा, जो अपने प्राणों की आहुति देकर भी शासन की रक्षा करेगा । हम किसी व्यक्ति विशेष अथवा संस्था से विरोध नहीं हैं। विरोध मात्र उन अनागमिक प्रवृत्तियों से है जो भगवान् के उत्तराधिकारी के वेश में इनके द्वारा की जा रही है। जिन्हें सुन कर देखकर सुज्ञ श्रावक का सिर तो शर्म से झुक जाता है, पर इस वर्ग पर तनिक भी असर नहीं होता है। क्योकि ये तो लज्जा प्रुफ ने हुए हैं। कहावत है जिसके आंख में थोडी भी शर्म होती है वह सुधर सकता है, पर जिनके आँख में नाम की कोई चीज ही नहीं रही हो वहाँ सुधार की आशा रखना नादानी है। इनमें सुधार तभी आ सकता है जब समाज में गति आवे । इनके सामने दो विकल्प किया तो आप अपनी प्रवृत्तियों को सुधारें भगवान् की आज्ञा अनुसार चले) अथवा देष का परित्याग कर अपने घर जावें । आज इस वर्ग की स्थिति इस प्रकार बनी हुई हैं। T ३८७
SR No.537269
Book TitleJain Shasan 2003 2004 Book 16 Ank 01 to 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2003
Total Pages382
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size23 MB
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