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________________ Gnawanwr.aawaawaaNawaWoreonaneweoneowweconoNeewanaveenaNewNNGINCOCONNOINS SHAHARA.ORTERATORatanRatataHBootootaoooooRRORATOPATARMONOMMENT हायुग प्रधान श्री कालिकाचार्यजी श्रीन शासन (नधर्मना प्रतापी पुरषो)विशेषis .वर्ष : १५. .ता.२७-+-२००२ गर्दभिल्ल जंगल में गया और वहां केसरी सिंह ने उसे मार | तो यही एक चिंता सता रही हैं कि नगर की समस्तभूमि डाला, वह मरकर नरक में चला गया। उनके चरण कमलों से पवित्र बन चूकी हैं तो फिर उसे सरस्वती साध्वी को बंधन मुक्त किया गया। धरती पर हम पैर रखेंगे तो क्या हम पाप में भागीदार नहीं अतिचार दोष की आलोचना कर पुन: साध्वी संघ में उनका होंगे?' प्रवेष कया गया। आचार्य भगवंत ने भी वेष परिवर्तन राजपुरोहित की इस बात को सुनकर सरल हदयी कर पुन: जैनाचार्य के रुप में श्रीसंघका नेतृत्व संभाला। राजा असमंजस में पड गया। वह सोचने लगा 'अहो यह .संवत्सरी तिथि परिवर्तन तो बडी विकट समस्या आ खडी हुई है। शास्त्रों तो लिखा हैं अपनी शक्ति होतो गुरु की भक्ति करनी चाहीये, उपनें चरण कमलों से पृथ्वीतल को पावन करते किंतु आशातना तो कभी नहीं! ओहो! क्या मुझसे घोर हए कालिकाचार्य अपने विशाल परिवार केसाथ भृगुकच्छ आशातना हो रही हैं? (भरोंच) पधारें। उस समय भरोंच में पू. आचार्य भगवंत _ 'पुरोहितजी! क्या उसआशातना के पापसे चने के भाणेज बलमित्र और भानुमित्र राज्य करते थे।ज्यों हि का कोई उपाय हैं ? उन्हें पूज्य आचार्य भगवंत के आगमन के समाचार मिले, 'हाँ! राजन् ! एक उपाय हैं।' उन्होने खूब धूमधाम के साथ पूज्य आचार्य भगवंत का 'कौनसा उपाय? जल्दी बताओ!' नगर-प्रवेश कराया। 'राजन्! आचार्य भगवंत नगर छोडकर विहार कर ..प्रतिदिन आचार्य भगवंत मेघकेसमान गंभीरस्वर जाय तो आप और प्रजाजन गुरु की घोर आशातना के पाप से धर्मदेशना देने लगे। पूज्य आचार्यदेवश्री के वचनामृत से बच सकते हैं, अन्यथा नहीं।' का पानकर श्रोतागण परमतृप्ति का अनुभव करते। राजा के 'पुरोहितजी! जिन आचार्य भगवंत को इतनेआईबर अति आग्रह से पूज्य आचार्यदेव श्री ने अपने विशाल के साथ नगर में प्रवेश कराया। उन्हें हम यहां से चले जाने परिवार के साथ भरोंच में ही चातुर्मास किया। के लिए कैसे कह सकते हैं? पूज्य आचार्य भगवंत के प्रति राजा के दिल में बढ़ती 'राजन! इसके लिए एक सुंदर उपाय है।' हुई श्रद्धा व आस्था को देखकर राजपुरोहित का मन ईर्ष्या 'कौनसा?' से जलने लगा। ऐसे भी निकट भूतकाल में ही _ 'जैन साधु स्वयं के लिए बनाई गई भिक्षा ग्रहण कालिका वार्य ने उस पुरोहित को वाद में पराजित किया नहीं करते हैं, उस भिक्षा को वे आधाकर्मी दोष से दूषित था। इस कारण उसके दिल में पूज्य आचार्य भगवंत के कहते हैं, आपकी आज्ञा हो तो समस्त नगरवासियों को प्रति वैरोगांठ बंध चूकी थी, वह ऐसे अवसर की ताक सूचना दी जाय कि साधुओं की भक्ति के लिए मिान्न मेंथा ताकि अपने वैर का बदला ले सके। आदिबनाया जाय।' कुछ दिन व्यतीत होने के बाद अवसर देखकरराजा ___बस! पुरोहित की यह बात राजा के दिमाग में बैठ के कान फूंकते हुए पुरोहित ने कहा 'राजन् ! इस धरती पर गई और उसने वैसा ही करने के लिए आदेश दे दिया 8 कालिकाचार्य से बढकर पवित्र पुरुष और कौन हो सकता दूसरे दिन जब साधु भगवंत भिक्षा के लिए निकले है ? कैसा निर्मल उनका संयम है।' तो उन्हे कहीं से भी निर्दोष भिक्षा प्राप्त नहीं हुई। घरघर राजा ने कहा, 'बिलकुल ठीक बात है, इस धरती में दोषित भिक्षा थी। पर ऐसे पवित्र पुरुषों का अस्तित्व यदा कदा ही देखने को आखिर, भिक्षा की दुर्लभता को देखकर आचार्य मिलता हैं। भगवंत ने वहां से विहार करने का निश्चय किया। राजने 'राजन! ऐसे महापुरुष के चरणकमल जिस धरती भी अपनी मुक सम्मति प्रदान कर दी। पर गिरे, वह धरती भी कितनी पवित्र कहलाती हैं। मुझे और एक दिन पूज्य आचार्य भगवंत नी आने MONOOR vGovicoletestM
SR No.537267
Book TitleJain Shasan 2002 2003 Book 15 Ank 01 to 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year2002
Total Pages342
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size20 MB
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