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________________ SPERH श्रीकालह श्रीमा: कोवा (ग पर आराधना गर).taant पिंडवाडा में आगार्य श्री प्रेमसूरिश्वरजी महाराज का गुणानुवाद उ८७ पिंडवाडा में आचार्य श्री प्रेमसूरिश्वरजी महाराज का गुणानुवाद PANNA B 880000000808685 जेढ वो ११ को पूज्य आचार्य भगवंत श्री | निर्मल और पवित्र था, विद्वता के महासागर होते हुए भी महान प्रेमसूरिश्वरजी महाराज साहेब की स्वागारोहण तिथी के गंभीर थे । सर्वोच्च स्थान पर बिराजमान होते हुए भी उनमें उपलक्ष में उनकी जन्म भूमि पिंडवाडा में मुनि श्री | अत्यधिक नम्रता थी । संयम की अत्यधिक जागृति रखते थे। चरणगुणविजयतो की निश्रा में गुणानुवाद के कार्यक्रम में | आश्रितो के आत्माका श्रेय होवे इसके लिये रात दिन ध्यान प्रातः एक भव विशाल रैली जिसमें पूज्यश्री का बहुत | रखते थे । उनके अंदर संयम भरपूर था एवं वे स्वयं संयम की बड़ा चलचित्र के साथ जिसमें बैंड पार्टी एवं अपने समाज | जीति जागती मूर्ति थे । संयम उनका प्राण था । संयमके साथ के ही बच्चों द्वारा निर्मित बैंड पार्टीने मधुर धार्मिक गीतों के | वे अपार वात्सल्य के सागरथे । सैकडों साधुओं के जीवन साथ गुरुवर्य की जय जयकार करते हुए निकाली गई। उधान को उन्होने नव पल्लवित रखकर सुरक्षित रखा एवं गुग प्रातः नौ बजे गुरु मंदिर में गुरुवर्य श्री प्रेमसूरिश्वरजी | स्पी पुष्पों से समृद्ध कीया । कभी भी उनके अंदर अभिमान का की मूर्तिका पक्ष ल एवं भव्य अंगरचना हुई तथा दस बजे स्पर्श नहीं हुआ तथा उनको कभी भी लोभ परिग्रह का भी स्पा गुणानुवाद को लेकर मुनि गंभीररत्न विजयजीने अपनी सरल | नहीं हुआ । कमा भा स्वप्रशसा नहा क | नहीं हुआ । कभी भी स्वप्रशंसा नहीं करी तथा कभी भी पर भाषा में प्रवचन देकर उनके जीवन चरित्र पर प्रकाश डाला। निंदा की बात नहीं करी । उन्होंने जीवन पर्यन्त गंगा बनवर बहते रहना पसंद कीया । इस गंगा में पतितों को स्नान करने आप श्री बीसवीं सदी के एक महान ज्योतिर्धर और दिया । अनेकों को तृषा - ज्ञान गंगा का पान कराया, लेकिन तपागच्छ स्पी 'गन में सूर्य के समान चमकते हुए तथा अब यह गंगा पाताल गंगा बन गई है। । नवीन कर्म साहित्य के सूत्रधार संयममूर्ति सिद्धान्त महोदधि एवं भगवान महावीर स्वामी की पाट परम्परा में बीसवीं उनकी गंभीरता में तत्त्वचिंतन रहता था, उनकी सदी के छींयोत (७६) वें चारित्र नायक स्व. पू. आचार्य उदासीनता में शासन चिंता रहती थी। उनके अंदर संया श्री प्रेमसूरिश्वर महाराज साहेब थे । आप श्री ने सिद्धान्त पालन का आनंद अभिव्यक्त होता था, उनके आग्रह में संया महोदधि, कर्म माहित्य निष्णांत आदि विशेषणों को सार्थक पालन का पक्ष रहता था तथा उनकी प्रेरणा में सम्यग्ज्ञान को कीया है। प्राप्ति का रणकार सूनाई देता था। छोटे बडे सभी को उनके हृदयका निर्मल स्नेह मिलता था । जीवन जीने का शास्त्रीय आपश्री के पट्टधर व्याख्यान वाचस्पति आचार्य श्री मार्गदर्शन मिलता था । सभी इनके पावन चरणोमें स्वयं का रामचंद्रसूरिश्वरजा एवं आगम प्रज्ञ आचार्य श्री हृदय खोल सकता था और पश्चाताप, प्रायश्चित कर निर्मल हो जंबसूरिश्वरजी, वर्धमान तप की दो बार ओली एवं तीसरी जाते थे। ओली पीचोतर से अधिक करने वाले आचार्य श्री राजतिलक सुरिश्वरजी तथा वर्धमान तप की १०८ ओली जैन संघ में और जिन शासन में मतभेद और मन में पूर्ण करने वाले आचार्य श्री भूवनभानू सूरिश्वरजी म. सा. | न | न रहे इसकी वे हमेशा चिंता करते थे और उपाय भी ढूंदी आदि अपने शिष्य परिवार सहित उस समय पांच सौ से | थे । संघ में मतभेद और मन भेदो से वे दुःखी रहते थे। । अधिक परिवार वाले हुए। . वे एक महान तपस्वी थे तथा अभ्यंतर तप के में श्रद्धेय और आराध्य गुरुदेव जिन शासन के | अ आजीवन साधक रहे थे । अपने पास रहे हुए श्रमणों के तत्त्वज्ञान की एक शाखा कर्म साहित्य में जिस तरह सम्यग्ज्ञान और सम्यगचारित्र के पालन के लिये वे हमेशा अद्वितिय विद्वान थे, पारंगत थे उसी तरह आगमिक जागृत पहरेदार थे। साहित्य की उन्की अनुप्रेक्षा भी असाधारण थी । उत्सर्ग आपके उच्चतम जीवन से हमें उन्नत जीवा मार्ग और अपव द मार्ग की उनकी सूझ अद्भूत थी। । | जीने की प्रेरणा मिलती है एवं आत्म साधना करने का बा आचार्य श्री कई महान गुणों के धनी थे, जीवन | प्राप्त होता है SUP: 1108RA 58868
SR No.537262
Book TitleJain Shasan 1999 2000 Book 12 Ank 01 to 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremchand Meghji Gudhka, Hemendrakumar Mansukhlal Shah, Sureshchandra Kirchand Sheth, Panachand Pada
PublisherMahavir Shasan Prkashan Mandir
Publication Year1999
Total Pages510
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shasan, & India
File Size29 MB
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