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: श्री
सन (18463)
दिया है और १९६० तक की उपलब्ध सम्पूर्ण जैन शोध सामग्री जैन वि के दोनों भागों में समाहित है । अब सन् १९६० ते १९९२ तक और पर्याप्त शोध सन्दर्भ सामग्री प्रकाश में आ गई है। किसी प्रतिष्ठित संस्था (जैसे ज्ञानपीठ या जैन विश्व भारती लाडनूं जो डीमूड युनिवर्सिटी बन गई है) को कुछ विद्वान नियुक्त कर इस सामग्री का संकलन करा लेना चाहिए । स्व. बा. छोटेलालजी तो व्यक्ति नहीं संस्था थे अतः, वे इतना बड़ा काम अकेले कर गये । अब कोई ऐसा जैन व्यक्ति दृष्टिगोचर नहीं आता जो ऐसे विशाल कार्य को सम्पन्न कर शके ।
अतः संस्थाएं ही ऐसा कार्य करा सकती है। इससे जैन संस्कृति, इतिहास, पुरातत्त्व एवं कला के विषय में लोगों को पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो सकेगी तथा भ्रान्तियां मिट सकेगी । जैन बि. में प्रयुक्त ग्रंथो, पत्र-पत्रिकाओ आदि के नामों का संक्षिप्तीकरण (ऐब्रेवाइशन) भी दिया गया है। इस तरह यह सम्पूर्ण ग्रंथ ग्रंथागारो एवं शोध पुस्तकालयो और शोध संस्थाओ के लिए तो उपयोगी है ही, शोधार्थी विद्वानो के लिए भी यह अधिक महत्वपुर्ण और उपयोगी है । स्व. बाबुजी इस ग्रंथ में जो कुछ उल्लेख कर गये है सम्भवतः काल दोष, ऋतु परिवर्तन एवं लोगो की उपेक्षा से कुछ का ह्रास या अभाव हो गया हो ।
अब स्व. बा. छोटेलालजी के प्रती कुछ श्रद्धा सुमन समर्पित करना कोई अतिशयोक्ति न होगी । यद्यपि उनके वारे में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने तुल्य होगा, फिर भी उन जैसे निरीह विद्वान बहुत कम हआ करते है । वे मारवाडी जैन परिवार में जन्मे थे, उन पर लक्ष्मी और सरस्वती की अपार कृपा थी, पर उन्होने लक्ष्मी की अपेक्षा सरस्वती को सदैव प्रधानता दी। वे निःसन्तान थे और युवावस्था में ही जीवन संगिनी के बिछोह के बाद तो वे जैनधर्म, जिनवाणी, जैन संस्कृति एवं जैन विद्वानों के प्रति पुर्णतया समर्पित हो गये । उन्होने अपनी सारी सम्पत्ति परोपकार, ज्ञानार्जन, जैन संस्कृति संरक्षण एवं संस्थाओ की सेवा में समर्पित कर दी थी। .." सन् १९४४ में स्व. मुख्तार सा ने राजगृही में जब वीरशासन जयन्ती