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श्री नखे हैं। डेरदंड.
लता को दिखाते हैं, तैसे शांत हरिभद्रसूरि के मन ऊपर विचार करते हाल के मनुष्य संत पुरुषों के गुण वर्णन की सत्यता को स्वीकारते हैं || १३ | ऐसे हरिभद्रसूरि के चरण की रज तुल्य मुझ सिद्धर्षिने सरस्वती की बनाई यह उपमितिभवप्रपंचा कथा कही है " ।। १४
बड़ा आश्चर्य हैं कि " तस्मादतुलोपशमः " इस ग्यारहवें पथ से ले कर " बहुविधमपि " इस आर्या तक जो प्रकटतया सिद्धर्षि का वर्णन है उसे डाक्टर साहब ने हरिभद्र का वर्णन कैसे मान लिया ? क्यों कि पूर्वोक्त चारों आर्या सिद्धर्षि की खुद की बनाई हुई नहीं है, किंतु भक्तिराग से किसी दूसरे ने बना के प्रशस्ति में दाखिल कर दी हैं । यह मेरा कहना कल्पना मात्र नही है। इस की सत्यता इसी प्रशस्ति के श्लोकों से प्रमाणित हो सकती है। खयाल कीजिये !" तस्मादतुलोपशमः सिद्धर्षिरभूदनाविलमनस्कः । परहितनिरतै मतिः, सिद्धान्तनिधिर्महाभागः " । इस पद्य में साफ २ सिद्धर्षि की स्तुति की गई है. इसी तरह इस के अगले तीन पद्यो में भी सिद्धर्षि की तारीफ है तो सिद्धर्षि जी खुद आप अपनी इस तरह स्तुति करें यह असंभवित है ।
दूसरा कारण यह भी है कि “ तस्मादतुलोपशमः " यहां पर तत् शब्द आगया फिर " तच्चरणरेणु " यह तद् शब्द का प्रयोग पुनरुक्त और असंवद्ध प्रतीत होता है ।
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इस लिये मेरा कहना है बीचकी चार आर्याएँ अन्यकर्तृक हैं, दीर्घदशी पाठक महाशय इस बात को ध्यान से सौंचें । आचार्य सिद्धर्षि अपने दीक्षागुरु की प्रशस्ति लिख के " अथवा " कह कर हरिभद्र जी की स्तुति करते हैं तो इस से भी यही सिद्ध हुआ कि पहले के जो प्रशस्ति के श्लोक हैं उन में हारभद्रसूरिजी का कुछ भी संबन्ध नहीं है ।
महाशय डाक्टर जेकोबी साहब को मेरी प्रार्थना है कि ऐसी बड़ी शब्द और अर्थविषयक अशुद्धियों को सुधार लेवें ।
पूर्वोक्त तीनों पद्यों का ( जिन का तर्जुमा जेकोबी साहब ने किया है ) असली अर्थ यह है:
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" जो सिद्धर्षि संग्रह करने में तत्पर हैं, और सत् बात के स्वीकार में हमेशाह जिनकी बुद्धि लगी हुई है, तथा, जो अप्रतिम गुणगणों से अपने में गधर की सी बुद्धि कराते हैं ।। १२ ।। कुंद और चन्द्र के समान निर्मल जिन