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શ્રી હરિભકસૂરિક જીવન-ઈતિહાસકી સંદિગ્ધ બાતે. ૪૯૭
खयाल करने का स्थान है कि अगर हरिभद्रसूरि सिद्धर्षि के समकालीन होते तो 'अनागत ही मेरा समस्त वृत्तान्त जाना इसलिये वे विशिष्ट ज्ञानी थे ऐसा सिद्धर्षि जी को लिखने की क्या जरूरत थी ?
“पुरोवर्तिनां पुनः प्राणिनां भगवदागमपरिकर्मितमतयो पि योग्यतां लक्षयन्ति, तिष्ठन्तु विशिष्टज्ञाना इति” यह भी सिद्धर्षि का ही वचन है, इस में ऐसे कहा कि “पुरोवर्ति-आगे रहे हुए प्राणियों की योग्यता को तो विशिष्टज्ञानवाले क्या भगवत् के आगम से संस्कारित बुद्धिवाले भी ( सिद्धान्त पारंगामी भी ) जान सकते हैं" पाठक महोदय ! देखिये इससे यही सिद्ध होता है कि सिद्धर्षि के समय में हरिभद्रसूरिविद्यमान नहीं थे,
अगर होते तो "विशिष्टज्ञाना एव" तथा " अनागतम्" इन शब्दों के प्रयोग . करने की सिद्धर्षि को जरूरत नहीं पड़ती।
___ "अनागतं परिज्ञाय चैत्यवन्दनसंश्रया । मदर्थेवकृता येन वृत्तिललितविस्तरा । ” ग्रह सिद्धर्षिजीका पद्य भी अपने और हरिभद्रमूरि के काल का व्यवधान प्रतिपादन करता है । “का स्पर्धा समरादित्यकवित्वे पूर्वसूरिणा। खद्योतस्यैव सूर्येण माग्मन्दमतेरिह।" इस प्रभावकचरितान्तर्गत श्लोक से भी हरिभद्रसूरि सिद्धर्षि के पूर्वाचार्य थे ऐसा तात्पर्य सूचित होता है। पंचाशक टीका के उपोद्घात से स्पष्ट होता है कि श्रीमान् अभयदेवसूरिजी हरिभद्रसूरिको कतिपय पूर्वश्रुत के ज्ञाता मानते थे तो यह बात भी तभी संगत होती है यदि हरिभद्रसूीर को सिद्धर्षि से चार सौ वर्ष पहले हुए माने ।
. यहां पर कुछ ऐतिहासिक पर्यालोचना भी कर लेता हूं, आशा है पाठक महोदय इसे अस्थान न समझेंगे ।
___ यह बात सर्वमान्य हो चुकी है कि हरिभद्रसूरि गृहस्थावस्था में चित्तोड नगर के राजा जितारि के मान्य पुरोहित, थे। अब प्रश्न यह होगा कि जितारि किस वंशका राजा और वह कब हुआ ? इसका उत्तर मेवाड के इतिहास से मिलना दुर्लभ है, क्यों कि बापारावल के राज्य काल विक्रम संवत् ७८४ से ले के आज तक उस के वंशधरों की नामावली में जितारि का नाम नहीं पाया जाता, इस वास्ते यह अनुमान किया जा सकता है कि वापारावल के पहले जो