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શ્રી હરિભદ્રસૂરિકે જીવન-ઇતિહાસકી સક્રિષ ખાતે
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धर्मपुत्र नहीं किंतु विजयानन्दसूरि के परंपराशिष्य हरिभद्रसूरि हैं; ऐसा पाडिवालगच्छीयपट्टावली तथा खरतर जिनरंगीयपट्टावली से सिद्ध होता है । यह बात भी यहां पर खास विचारणीय है कि - " नहि तव कुलवृद्धि पुण्यमास्ते" इत्यादि वचनों से याकिनीमह तरापुत्र हरिभद्रसूरि के वंश का विच्छेद प्रतिपादित होता है, और पूर्वोक्त गाथावर्णित हरिभद्र की तो " श्रीदेवसूरिः (३०) नेमिचन्द्रसूरि : (३१) उद्योतनसूरिः (३२) वर्धमानसूरि : ( ३३ ) " इत्यादि परंपरा उपलब्ध होती है, इस लिये यह हरिभद्रसूरि ललितविस्तरादिकर्तृ हरिभद्र से भिन्न हैं । कई लोगों का मत है कि ललितविस्तरादि कर्ता- हरिभद्रसूरि सिद्धर्षि के समानकालीन थे। इस मत के साधक प्रमाण " मिथ्यादृष्टिसंस्तवे हरिभद्रसूरिशिष्य - सिद्धसाधुज्ञतम् । " " तत्रोद्घाटे हट्टे उपवि। टान् सूरिमन्त्रस्मरणपरान् श्रीहरिभद्रान् दृष्टवान्, सान्द्रचन्द्रके नभसि देशना, बोधः, व्रतमित्यादि । ” “ तदा गग्गायरिएण विजयानंद सूरि परंपरासीसो हरिभद्दायरिओ महत्तरो बोहमयजागो बुद्धिमंतो विण्णविओ 'सिद्धो न ठाति' हरिभद्देण कहिअं कमवि उवायं करिस्सामि" । इत्यादि बताये जाते हैं तब इस मत के विरोधी इस का खंडन इन युक्तियों से करते हैं-' मिथ्यादृष्टिसंस्तवे ' इत्यादि प्रतिक्रमणदीपिका में सिद्धर्षि को हरिभद्र के शिष्य कहे हैं तो इससे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि आप उन के समानकालक ही थे, हरिभद्रकृत ग्रन्थसे सिद्धर्षि को बोध होने से पूर्वोक्त ग्रन्थकारने उनको हरिभद्र के शिष्य लिख दिया तो इसम कुछ भी विरोध नहीं है ।
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" तत्रोद्घाट " तथा तदा गग्गायरिएण " ये दोनो पाठ भ्रममूलक मालूम होते हैं. " तत्रोद्घाटे " इत्यादि प्रबन्ध में सिद्धर्षि को हरिभद्रसरि के हस्तदीक्षित शिष्य लिखा है, परन्तु यह बात खुद सिद्धर्षि के वचनों से अप्रामाणिक सिद्ध होती है। सिद्धर्षि आप तो “सद्दीक्षादायकं तस्य स्वस्य चाहं गुरुत्तमम् । नमस्यामि महाभागं गर्मर्षिमुनिपुंगवम् " । इस प्रकार स्वकृत उपमितिभवप्रपंचा कथा की प्रशस्ति में गर्मर्षि