SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ દિગમ્બર-સમ્પ્રદાય કે સ. ૫૩૧ ૧૩૧ प्रत्येक संघमें गण और गच्छ होते हैं । कुछके नाम ये हैं:नन्दिसंघमें बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ और पारिजातगच्छ । सेनसंघमें सुरस्थगण और पुष्करगच्छ । सिंहसंघमें केनूरगण और चन्द्रकपाटगच्छ । देवसंघमें देशीयगण और पुस्तकगच्छ । ये चारों संघ क्यों स्थापित हुए अथवा इनकी क्या आवश्यकता थी इसका उत्तर इन्द्रनन्दि अपने ' नीतिसार ' नामक ग्रन्थमें यह देते हैं कि “ विक्रमादित्य और भद्रबाहुयोगीके स्वर्गवास हो जानेके बाद प्रजा स्वच्छन्दचारिणी और पापमोहिता हो गई। उस समय ब्रह्मनिष्ठ और परमार्थके ज्ञाता यतियों या मुनियोंमें भी 'स्वपराध्यवसाय' बहुत ही अधिक बढ़ गया । ( ' यह हमारा और वह तुम्हारा' इस तरहके संकीण विचारों या परिणामोंको ' स्वपराध्यवसाय' कहते हैं । गरज यह कि मुनियोंमें अपने अपने समूहका या दलका मोह बढ़ गया-उनमें इस तरहकी उदार-हृदयता न रही कि सब ही मुनि हमारे हैं।) तब निमित्तशास्त्रके अग्रणी विद्वान् अदलिने संघोंकी स्थापना की।" ___ यही बात · श्रुतावतार' नामक ग्रन्थमें और भी स्पष्टरूपसे कही गई है। उसमें लिखा है कि "अहंद्वलि आचार्य प्रति पाँच वषमें सौ योजनके भीतर रहनेवाले मुनियोंको एकत्रित करके युग-प्रतिक्रमण कराया करते थे। एक बार उन्होंने युगप्रतिक्रमणके समय आये हुए मुनियोंसे पूछा-' सर्वेप्यागता यतयः' अर्थात् सब मुनि आगये ? इस पर उन्होंने उत्तर दिया-'वयमात्मात्मीयेन सकलसंघेन आगताः' अर्थात हम सब अपने अपने संघ सहित आ गये । यह सुनकर आचार्य महोदयने सोचा कि अब यह जैनधर्म गणपक्षपातके भेदोंसे ठहरेगा उदासभावसे नहीं और तब उन्होंने संघाँकी स्थापना की, " ___ संभव है कि जिस समय ये संघ स्थापित हुए थे उस समय इनमें कुछ मतभेद रहा होगा 'श्रुतावतार' के शब्दोंमें कमसे कम गणपक्षपात या संघपक्षपात अवश्य रहा होगा परन्तु आगे वह भेद या पक्षपात विशेष नहीं बढ़ा और इस कारण इन संघोमें आचार विचार सम्बन्धी या तत्त्व सम्बन्धी भेद न पड़ा । नीतिसारमे लिखा है कि: गणगच्छादयस्तेभ्यो जाताः स्वपरसौख्यदाः। न तत्र भेदः कोप्यस्ति प्रव्रज्यादिषु कर्मसु ॥ ८॥
SR No.536511
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1915 Book 11 Jain Itihas Sahitya Ank
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1915
Total Pages376
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy