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જૈન વે. કાન્ફરન્સ હેરલ્ડ.
४ शाकटायन व्याकरण पिछले समय में जैनविद्वानों में बहुत प्रचलित रहा है और यही कारण है जो उसपर ७-८ वृत्तियाँ और टीकायें बन गई । हैं आपर्ट साहबके द्वारा प्रकाशित होने के पहले भी वह दक्षिणके सभी जैनपुस्तकभण्डारोंमें प्राप्य था; परन्तु उस समय तक किसी भी जैन विद्वान् या टीकाकारने इस बात - का दावा न किया था कि यह वही व्याकरण है जिसका उल्लेख पाणिनि ने किया है । यदि ये प्राचीन शाकटायन होते तो अवश्य ही इस बातका उल्लेख मिलता । यह दावा जैनोंका नहीं किन्तु आपर्ट साहबका है और इसमें इसके सिवाय और कोई महत्त्व नहीं है कि यह एक 'गौर काय ' महाशय का किया हुआ है ।
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५ एकीभाव स्तोत्र के कर्त्ता कविश्रेष्ठ वादिराजसूरिका बनाया हुआ एक पार्श्वनाथ नामका काव्य है । यह विक्रम संवत् १०८३ का बना हुआ है । उसकी उत्थानिक में एक श्लोक हैं:
कुतस्त्या तस्य सा शक्तिः पाल्यकीर्तेमहौजसः । श्रीपदश्रवणं यस्य शाब्दिकान्कुरुते जनान् ॥
अर्थात्, उस महातेजस्वी पाल्यकीर्तिकी शक्तिका क्या वर्णन किया जाय कि जिसके श्रीपद के सुनते ही लोक शादिक या व्याकरणज्ञ हो जाते हैं ।
इससे मालूम होता है कि पाल्यकीर्ति कोई बड़े भारी वैयाकरण थे । अब शाकटायनप्रक्रिया के मंगलाचरणको और देखिए :
मुनीन्द्रमभिवन्द्याहं पाल्यकीर्ति जिनेश्वरम् । मन्दबुद्धयनुरोधेन प्रक्रियासंग्रहं ब्रुवे ॥
इसमें जो ' पाल्यकीर्ति' शब्द आया है वह जिनेश्वर का विशेषण भी है और एक आचार्यका नाम भी है । एक अर्थसे इसके द्वारा जिनेन्द्रदेवको और दूसरे असे प्रसिद्ध वैयाकरण पाप्यकीर्तिको नमस्कार होता है । दूसरे अर्थ में मुनीन्द्र और जिनेश्वर ( जिनदेव जिसका ईश्वर है ) ये दो सुघटित विशेषण पाल्यकीर्तिके बन जाते हैं
प्रक्रियासंग्रहके कर्त्ता ने जिन पाल्यकीर्तिको नमस्कार किया है, इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि वे वादिराज के उल्लेख किये हुए पाल्यकीर्ति वैयाकरण ही हैं और जब यह निश्चय हो गया तब यह अनुमान करना बहुत संगत होगा कि