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श्वे. .. २६४.
के लिए ही उन्होंने इस टीकाका अमोघवृत्ति नाम रकूवा था। अमोघवर्षने विक्रम संवत् ८७३ से ९३२ तक राज्य किया है, अत एव शाकटायनका समय भी लगभग यही होना चाहिए। __प्रो. पाठकने अपने उक्त लेखमें कुछ युक्तियाँ देकर एक बात यह भी लिखी थी कि शाकटायनदिगम्बरजैन सम्प्रदायके नहीं किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायके मालूम होते हैं।
उक्त लेखके प्रकाशित होने के बाद गत जुलाई की सरस्वतीमें श्वेताम्बर सम्प्रदायके साधु श्रीयुत मुनिजिनविजयजीका एक छोटा सा लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने इस विषयका एक बहुतही पुष्ट प्रमाण दिया है कि वास्तवमें शाकटायन व्याकरणके का लगभग अमोघवर्षके समयमें हुए होंगे। साथही उन्होंने इस बातको सिद्ध किया है कि शाकटायन दिगम्बर सम्प्रदायके ही थे, पाठक महाशयके कथनानुसार श्वेताम्बर सम्पदायके नहीं।
वे कहते हैं कि “ विक्रमकी तेरहवीं शताब्दिमें मलयागिरिसूरि नामके श्वेताम्बराचार्य हो गये हैं। उन्होंने अनेक ग्रन्थोंकी रचना की है और उनमें प्रायः इसी शाकटायन व्याकरणका उल्लेख किया है । 'नन्दीसूत्र' नामक जैनागमकी टीकामें वे एक जगह लिखते हैं-'शाकटायनोऽपि यापनीययातिग्रामाग्रणीः स्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तावादी भगवतः स्तुतिमेवमाह'। ( नन्दीसूत्र पृष्ठ २३, कलकत्ता )। 'यापनीययतिग्रामाग्रणी' का अर्थ होता है यापनीय संघके मुनियोंके नेता या आचार्य । अर्थात् शाकटायन मुनि यापनीय संघके आचार्य थे और यह संघ दिगम्बरोंके मूलसंघ, काष्ठासंघ, 'किपिच्छ आदि से एक है। इसकी उत्पत्ति विक्रमकी छठी शताब्दिके बाद हुई थी। देवसेनसरिने 'दर्शनसार' में विक्रम मृत्युके ५२६ वर्ष बाद, मथुरामें द्राविड़ संघकी उत्पत्ति बतलाई है और इन्द्रनंदि आचार्य नीतिसार' में द्राविड़ संघके बाद यापनीय संघकी उत्पत्ति बतलाते हैं। इससे निश्चित है कि वि० की छठी शताब्दिके बाद किसी समय यापनाये संघमें शाकटायन हुए और इससे जो उन्हें प्रथम अमोघवर्षके समयमें बतलाते हैं वे ठीक कहते हैं । इत्यादि ।"
१ 'किपिच्छ' नहीं 'नि:पिच्छि' नामका संघ है जिसका दूसरा नाम 'माथुर संघ' भी है । २ मथुरामें नहीं 'दक्षिणमथुरा' में जिसे कि इस समय 'मदुरां कहते हैं।