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न वे. -३२- २२८४. मौर्यवंशी राजपूत चित्तोड़ में राज्य करते थे उनमें कोई जितारि नामक राजा हुआ होगा और उसके दरबार में हरिभद्रजीने प्रतिष्ठा पाई होगी। तो इससे भी बापारावल के पहले ही हरिभद्र का चित्तोड में होना सिद्ध होता है । इस सब पर्यालोचनसे सिद्ध हुआ कि आचार्य हरिभद्रजी सिद्धर्षि के दीक्षा गुरु और समकालक नहीं थे। ___अन्य कहते हैं कि भगवान् हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास विक्रम संवत् ५८५ में हुआ। उनका स्वमतसाधक प्रमाण ‘पचसए पणसीए विक्कमकालाओ झत्ति अत्थमिओ। हरिभद्रमूरिसूरो निव्वुओ दिसउ सुक्खं" यह विचारश्रोणीकी गाथा है ।
वस्तुतः यही गाथा हरिभद्र का सत्य इतिहास प्रकट करती है ऐसा कहा जाय तो कुछ हर्ज नहीं, क्यों कि पूर्वोक्त पक्ष साधक प्रमाणों के जैसी इस की निर्बलता नहीं है।
दसरी यह भी बात है कि इस पक्ष का समर्थन करनेवाले अन्य भी बलवान् ऐतिहासिक प्रमाण अधिक उपलब्ध होते है, जिन का यहां पर कुछ दिग्दर्शन कराना अस्थान न होगा,-गुर्वावली ( मुनिसुन्दरसूरिकृत) में आपको द्विताय मानदवसूरि के मित्र लिखा है जिनका सत्ताकाल विक्रम की छठी सदी है। क्रियारत्नसमुच्चय की प्रशस्ति में भी इसी के अनुसार लिखा है। अचल गच्छकी पट्टावली से भी यही मतलब पाया जाता है । तपगच्छ की पट्टावली में-जो सुमतिसाधुमूरि के बारे में लिखी हुई है लिखा है
__ २७ श्रीमानदेवमूरिः अम्बिकावचनात् विस्मृतसूरिमन्त्रं लेभे, याकिनीसूनुहरिभद्रसूरिस्तदा जातः, तच्छिष्यौ हंसपरमहंसौ”।
तथा विचारामृतसंग्रह में वीरनिर्वाण १००५ याने विक्रम संवत् ५८५ के वर्षमें हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास हुआ लिखा है। उस का वह पाठ नीचे लिखा है
" श्रीवीरनिर्वाणात् सहस्रवर्षे पूर्वश्रुतं व्यवच्छिन्नं, श्रीहरिभद्रमूरयस्तदनु पञ्चपञ्चाशता वर्षेः दिवं प्राप्ताः "॥
तथा, भास्वामी के शिष्य सिद्धसेन गणि तत्त्वार्थवृत्ति में हरिभद्रकृत नन्दी टीका का प्रमाण देते है. तो इस से भी हरिभद्रसूरि का निर्वाण पष्ठ शतक