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________________ १०) २स २८३. निकालते हैं. भाई गच्छादिकोंके पक्षपातमें कुछ मोक्ष नहीं रखा है. किंतु आपस में लडते २ हमारे महान् आचार्योंपर दोषका आरोपण होता है. केइ कहता है तुमारे हेमचंद्राचा . यशोविजयजी, आत्मारामजी आदिने क्या किया, वह केवल आपना पक्ष तानतथे. तो दुसरा बोल उठा की, तुम रे जिनदत्त सूर्यादिने क्या किया ! बस इन्ही ब तोसे मूव लेग धर्मकी हिलन, करवाते हैं. एक कवि कहते हैं कि, आपसमें संप रखना अच्छा है. तद्यथ :-- श्लोक संगति श्रेयसी पुंनां , स्वकुलैरल्पकैरपि । तुषेणापि परित्यक्त्वा, न प्ररोहन्ति तण्डुलाः ॥ १ ॥ अर्थः-चाहे अपने कुलके थोडेही लोग हो. परन्तु उनसे मिलकर रहनेमें बडा फयदा है. परन्तु जैसे तुषको छाडनेके बाद चांवल नही उग सकता है. वैसेही कुसंपी पुरूषकी जड नहीं जमती. हे वत्स ! मुझे कहते हुवे बडा शरमाना पडता है कि, हमारे मुनिराज जिन्होंने कि, गृहस्थावासको त्याग दिया है. वह मूर्ख श्रावकोंके कहनेसे स्वयं झगडों में फस जाते हैं, और दिलमें समझते हैं कि, हमने बड। भारी नाम प्राप्त किया. परन्तु उन मेरे पवित्र मुनिबरोंको यहभी खयाल नहीं रहता कि, ऐसा करनेसे उनक भव बिगडनेवाला है. हाय हाय कितने अफसोस का मुकाम है; कि, हम रे मूर्ख शिरोमणी श्रावकभाइ परस्परमें लडाइ करके श्वान (Dog ) की उपमाको प्राप्त होते हैं. हे वत्स ! यदि वास्तव में विचारा जावे तो चोराशी लक्षजीवयोनी पर अपनेको मैत्रिभाव रखना चाहिए. देख. एक कविने कहा है. श्लोक अयं निजः परोवेति, गणाना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ १ ॥ तो इससे सिद्ध होता है कि, आपसमें संप रखनेहीसे सर्व कार्य हो . सक्ते हैं. एक अंग्रेजी कविने कहाभी है.(Unity is Streangth) अर्थात् ऐक्यता यह एक अपूर्व ताकत है. हे भाई जैसे एक तृणको तोडनेमें देरी नही लगती है. वैसेही एक पुरुषके कार्यकों बिगाडनेर्भः कुच्छ मुशकीली नहीं पडती है, परन्तु यदि वही तग, पचास साठ वा कीतनेभी
SR No.536506
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1910 Book 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1910
Total Pages422
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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