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________________ १४८ जैन कॉन्फरन्स हरैल्ड. [ मे उसको पहिले शांत करके पीछे दूसरे दरजेपर ढोरोंका खयालकरे - भाईयों, सोचो क्या हमारे भाइबन्ध ढोरोंसे भी गये बीते हैं कि जिनपर हमको दया नहीं आती ? जब भूखसे मरकर या अन्यधर्मका अंगीकार करके अपने स्वामीभाई अपनी संख्याको कम करदेवेंगे तो अपने अंदर बल पराक्रम कहांसे आवेगा? गोया अपने भाईयोंकी सार संमाल न करनेसे अपने अंगोपांगको दुर्बल करनाहै. अपना फर्ज है कि अपने निराश्रित भाईयोंको और बहनोंको आश्रम देवें. अपने यतीम ( मातापितारहित ) बच्चोंकी परवरिश करके उनको पढाकर हुशयार करें तो अपना बल प्राकृम बढसकता है. दुकालमें सैकडों हजारों बच्चे भूख से मरजाते हैं अथवा रोटीके लालच अन्यधर्मको अंगीकार करते हैं यह कितने बड़े अफसोस की बात है? दिन बदिन अपनी संख्या कम होती जाती हैहै - इस विषयको चर्चते हुवे मेरा हृदय फटता है और जहांतक विवेचन किया जावे थोडा है परन्तु अन्य विषयों परभी हमको इनसाफकी नजरसे देखनाहै इस कारण इस विषयको आप सब साहबौके खोलेमें डालकर आपसे उम्मेदकी जाती है कि आप उसको जुरूर अंगीकार करेंगे और जैन समाज के सच्चे खैर खुहा बनेंगे. व्यवहारिक तथा धार्मिक केलवणी. बांधवो ! निराश्रिताश्रयके साथही साथ और उसही दरजेका जरूरी कर्तव्य विद्याप्रचारका हैमनुष्य में और पशूमें विद्याकाही फरक है. विद्या न होनेसे मनुष्य पशुसमान है. पशूके सिंग पूंछकी जगह मनुष्यके डाढी मूंछ हैं—इस केलवणीमें पूर्वकालमें अपना समाज जो बहुत श्रेष्ट गिणी जातीथी उसकी आज यह दशा होगई है कि इस खाते में अपना समाज सबके पीछे है और खास कर अहमदाबादसे उत्तर विभागके जैनी जिनके सुधारेके वास्ते यह कोनफरन्स इकट्ठी कीइ गई है. बहुतही पीछे सुननेर्म आये हैं और इस अफसोस दिलानेवाली दशा के कारण कुसम्प, कलह, कदाग्रह, ईर्षा, स्वार्थबुद्धि वगैरही हो सकते हैं कि जिससे कोइ प्रबन्ध तालीमका नहीं हो सकता है. आप साहब अच्छी तरह जानते हैं कि अपने धर्म और समाजकी उन्नत्ति तालीम अर्थात शिक्षापर मुनहसिर है. यह शिक्षा दोप्रकारकी है:१. धार्मिक. २. व्यवहारीक आत्माको परमात्मा बनानेके वास्ते इन दोनों प्रकारकी शिक्षाकी आवश्यकता है. परन्तु अपने लोगों में इस तरक्की के जमानेके मुवाफिक विद्याका ज्यादा प्रचार देखने में नहीं आता है क्योंकि अपने अंदर लिखना पढ़ना सीखकर चिठ्ठी लिखलेनेकोही पूरी तालीम समझ लीगई है और खयाल यह कियाजाता है कि क्या ज्यादा लिख पढकर हमको नोकरी करना है? यह खयाल बिलकुल नेस्तनाबूद करदेनेके लायक है क्योंकि केलवणी अपने आत्माके सुधारके वास्ते है अपनी बुद्धिके प्रकाशके वास्ते है अपनी जिम्मेदारियोंका अनुभव होकर उन फर्जेके अदा करनेके वास्ते है, अपने क र्तव्य ठीक तोरपर समझने के वास्ते है. इस लिये हे सजनो ! मनुष्यको मनुष्य बनानेके वास्ते उसको ऊंचे दरजैकी तालीम देनेकी आवश्यकता है. परन्तु कहते हुवे अफसोस होता है कि जिस प्रान्तकी यह कोनफरन्स है उसके लाखों जैनीयोंकी बस्ती में शायद, अहमदाबादको छोडकर, पांच सातही जैनीग्रेज्यूएट हों अथवा ऊंचे दरजेकी संस्कृत तालीम पाई हो. और अहमदावादमें भी जैनीयोंकी संख्याके मुवाफिक - ऊंची तालीम पानेवालोंका नम्बर नहीं है. केलवणी मर्द और स्त्री दोनोंके वास्ते बराबर हैं क्योंकि शिक्षासे ज्ञान होता है, ज्ञानसे कर्म क्षय होते हैं और कर्मके क्षय होतेसे मोक्ष होती है. जब अपने शास्त्रोंके हुक्मके मुवाफिक स्त्रीलिंगसेभी मोक्ष मिलता है तो फिर आजकलकी रूढीके मुवाफिक स्त्री शिक्षाको बिलकुल हाथसे छोड़ देना अवल तो
SR No.536501
Book TitleJain Shwetambar Conference Herald 1905 Book 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchand Dhadda
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1905
Total Pages452
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Shwetambar Conference Herald, & India
File Size13 MB
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