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________________ उनके लिये विधवाश्रम खोलकर उनको उच्चतम आर्थिक तथा औद्योगिक शिक्षणका अभ्यास करानेकी सुव्यवस्था करें। जिससे वे अपने चारित्र गठनद्वारा तथा शिक्षण प्रचारद्वारा अपना तथा स्त्री समाजका महान कल्याणकर सकेंगी। अंतर्जातीय विवाह. जैन धर्म साम्यवाद का प्रतिपादन करता है। परन्तु बडे भारी खेदका विषय है कि इसमें भी जातियों, उपजातियों तथा प्रांत भेदने घर कर लिया है। कई जातियों में परस्पर न रोटी व्यवहार है न बेटी व्यवहार है । और कई जातियों में परस्पर रोटी व्यवहार होते हुए भी बेटी व्यवहार नहीं है। एक प्रांतकी जैन समाज दूसरे प्रांतकी जैन समाजसे बेटी व्यवहार नहीं करती जिसके कारण कई माता पिताओंको बडे यत्न व प्रेम से पाली हुई पुत्रियों को अपनी जातिमें योग्य वर न मिलने के कारण से और दूसरी जैन जातिमें बेटी व्यवहार न करनेके कडे नियम के कारण से विवश होकर अपनी कन्याओंको योग्य अयोग्यका विचार न करते हुए पञ्चास चालीस वर्षके बूढ़ेक गले मढना पडता है अथवा अनमेल विवाह या बालविवाह कर देना पडता है | यदि वर न मिले तो बडी बडी उमर की कन्याओंको कंवारे रहकर आयुज्यतीत करनेके लिये बाध्य किया जाता है। और कई साधारण स्थितिके माता पिताओंको अपने योग्य पुत्रोंके अपनी जातिमें कन्याओंके न मिलने के कारण विबाह न होने से या तो विवश होकर सारी आयु कंवारे ही रखना पडता है या उन लडकोंको विवश होकर और कोई उपाय न मिलने से दूसरी जातियों और धर्नामें सम्मिलित होकर विवाह करना पडता है जिसका परिणाम यह होता है कि वे लोग अपनी जाति तथा जैन धर्मको छोड़ देनेपर विवश होकर अन्य धर्मी बन जाते है । जो लोग खूब मालदार हैं ये लोगकन्याका रुपया देकर अर्थात् खरीदकर अपने पुत्रों का विवाह करनेके लिये विवश हो जाते हैं । जिससे कन्याविक्रय की भी वृद्धि होती है । नतीजा यह होता है कि बालविवाह, वृद्धविवाह, अनमेलविवाह, कन्याविक्रयकी वृद्धी तो होती ही हैं। उसके साथ समाजमें व्यभीचारके फैलनेसे बल और वीर्यकाभी नाश होता है। और अंतमें हासद्वारा अपनी जातियोंकी होती हुई क्षतिकी भयकंर परिस्थितियोंका अनुभव करना पड़ता है। इन उपरोक्त भयंकर हानियोंको दृष्टीगोचर करते हुए मेरे क्षुद्र विचारसे तो यदि जैन समाजको अपनी स्थिति कायम रखना हो तो सब प्रकारके भावोंको शीघ्र तिलांजली देकर हरेक जैनसे चाहे वह किसीभी जाति, उपजाति, संप्रदाय, या प्रांतका हो रोटी तथा बेटी व्यवहार निःसंकोच खोल देना चाहिये। जिससे विवाह क्षेत्रके विस्तृत हो जानेसे उपरोक्त हानियां दूर हो जावेगी। यह मेरी नम्र प्रार्थना है। प्रचारकार्य और शुद्धि। एक समय ऐसाथा की जैन धर्म सर्वत्र व्याप्त था, परन्तु आज वही सर्व व्यापक तथा सार्वजनिक धर्म भारतके कई देशोंसे तो सर्वथाही लुप्त हो गया है और यदि उन देशों में कुछ अल्प संख्या में जैन समाज पाईभी जावेगी तो वह भारतके दूसरे भागोंसे आकर बसी हुई पाई जावेगी। एक समय मगध वैशाली आदि देशों आज जिनको आसाम विहार उड़ीसा बंगालके नामसे पुकारा जाता है में जैन धर्म सार्वजनिक था परन्तु इन देशोंमें आज एकभी जैन दृष्टीगोचर नहीं होता गया के आसपासका प्रदेश काश्मीर सिंध और फरेन्टियर में से भी जन धर्म सर्वथा लुप्त हो गया है। कहांतक कहूं औरभी ऐसे कई परदेश हैं जहांपर पहिले तो जैन धर्म था परन्तु आज वहाँके निवासी जैन शब्दसे भी परिचित नहीं रहे । और जहां कही जैन समाज है भी तो उसमें दिन प्रतिदीन कमी होती दीख पडती है इसका कारण है हमारी प्रचार कार्यकी तरफ उपेक्षा । चाहे कोई
SR No.536274
Book TitleJain Yug 1934
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1934
Total Pages178
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size20 MB
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