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ता. १५-४-३२
-- न युग - श्री आत्मानन्द जैन पुरुकूल ( गुजरांवाला-पंजाब के षष्ट वार्षिकोत्सव के
बाबु श्री बहादुरसिंघजी सिंघी का व्याख्यान.
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सन
धर्मप्रिय सभ्यजन, अध्यापकवर्ग और विद्यार्थिगण ! आज वैसी ही होती जैसी हमारी संस्था और समाजकी है ।
सबसे प्रथम तो मैं आजके इस जानन्ददायक प्रसंग यह तो धनवानों का ही फर्ज है की वे अपनी योग्यता का पा, आप सब बन्धुओंके दर्शन करनेका और परिचय प्राप्त कार्यक्षेत्र निश्चित करें। यह दूसरी बात है की कोई धनवान् करनेका जो मुझे सौभाग्य प्रात हुआ है उसके लिये, मैं होनेके साथ साथ विद्वान् भी हो, तो उसको ऐसे पदके आपका हृदयसे अभिनन्दन करता हूं । इस गुरुकुलके अघि- लिये खुशीसे पसंद कीया जाय; परंतु सामान्य नियम एक पाता और प्राणम्वरूप भाईसाहब श्री कार्तिप्रसादजीका कोई ही होना चाहीए और वह मेरी दृष्टि से यही कि जहां जहां तीन चार वर्षसे आग्रह था कि मैं गुरुकुलके ऐसे वार्षिक विद्या और विचारका सबंध हो वहा सर्वत्र अधिकसे अधिक संमेलनपर उपस्थित हो कर कुछ अपनी सेवा समर्पित करूं। विद्यासंपन्न और विचारसंपन्न व्यक्तिको ही प्रमुख बनाकर लेकिन आज तक मुझे, अपनमें इस विषयकी कोई विशेष उसके ज्ञान और विचारका लाभ उठाना चाहिए । योग्यता न पाकर, इस पदके स्वीकार करनेमें पूरा संकोच
गुरुकुलम्हा: और उस लिये मैं टालमटोल करता रहा । लेकिन इस गरुकल क्या है और उसका ध्येय और कार्य क्या समयका अधिष्ठाताजीका आग्रह बहुत उग्र स्वरूपका था
औ ह बहुत उम्र स्वरूपका था है इस विषयमें बहुत कुछ कहा सुना गया है, और आप
र और उसका अस्वीकार करना मुझे अशक्य सा प्रतीत हुआ, सब लोग उससे अब परिचित भी हो गये है, इस लिये मैं एतदर्थ, मूकभावसे, इस बार मैंने इस आज्ञाके आधीन होना
इस विषयमें कुछ विशेष न कहकर और प्राचीन इतिहासके अपना कर्तव्य समझा; और बिना हि हां-ना कुछ कहकर
-ना कुछ कहकर गहर तलमें न जाकर, सीर्फ वर्तमान बातोंका ही कुछ ऊहामैं आज आपकी सेवामें उपस्थित हुआ हूं।
पोह मैं आपके सामने करना चाहता हूं। यह बात सबको मेर लिये तो यह एक सौभाग्य और हर्षका प्रसंग है विदित ही है कि प्राचीन कालमें हमारे देशमें शिक्षा और कि-गुरुकुल जैसी सज्ञान और सक्रियाकी शिक्षा दे कर विद्याका जितना प्रचार था वैसा जगत्के और किसी देशमें मुक्तिका मार्ग बतलानेवाली संस्थाकी, इस प्रकार यत्किंचित् न था। भारतवर्ष ही उस समय संसारका शिक्षादायक गुरु सेवा करनेका धन्य प्रसंग मुझे प्राप्त हुआ । लेकिन इसके पा । भारतवर्षहीसे विद्या और शिक्षा प्राप्त कर दूसरे देश साथ ही मैं अपने समाजमें जो एक अनुचित परंपरा रूढ सभ्य और शिक्षित बने थे । उस प्राचीन कालमें भारतवर्षने हो गई है उसकी और आपका ध्यान खींचना चाहता हूं। जो ज्ञानविषयक उन्नति प्राप्त की थी उसका इतिहास पढ़ वह परंपरा है किसी भी जलसे पर धनाढ्य या लक्ष्मीप्रिय कर आज युरपका बडेसे बडा विद्वान भी आश्चये बकित व्यक्ति ही को प्रमुख बनाने की ओर समाजका झुकाव । प्रायः होता है । उस समय भारतवर्ष में जैसे महान् गुरुकुल और अपने समाजमें, जितनाही बडा द्रव्यसंपन्न व्यक्ति सभापति विश्वविद्यालय थे उनकी तुलना कर सके वैसे विद्यालय आज पदके लिये मिले उतनी ही जलसे की महत्ता और सफलता बीसौं शताब्दीका युरप भी नहीं स्थापित कर सका । समझी जाती है । यह बात चाहे किसी हद तक ठीक हो लेकिन कालके नियमानुसार भारतवर्षका बह ज्ञानसूर्य विपपर इस एकतरफी झुकावमें दूसरी महत्वकी और सची बाजु तियेांके बादलांसे आच्छादित होकर शताब्दियों तक हमारे दबही नहीं बलकि लुप्त सी हो गई है। कोन्फरन्स जैसी लिये अंतरित सा हो गया, और उसके सबबसे देशमें सर्वत्र सामाजिक संस्थाओंकी बात अभी छोड दें, तो भी गुरुकुल अज्ञानान्धकार फैल गया । मुसलमान प्रजाके, शताब्दियों जैसी विद्या और शिक्षाप्रधान संस्थाओंके लिये यह कभी तक होते रहनेवाले क्रूर और संहारक आक्रमणोंके कारण शोभारूप नहीं समझा जा सकता, कि जब दो मेंसे एककी भारतवर्षकी सारी ही प्राचीन व्यवस्था और संस्कृति छिन्न पसंदगीका सवाल आवे तब ये विद्वान् को छोड धनवानको भिन्न हो गई । तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिलाके जगद्विसभापति चुनें । इसमें सीर्फ अशोभा ही नहीं बल्कि वैसी ख्यात महाविद्यालय जमीनदोस्त हुए और पंजाब, सिंध, विद्याजीवी संस्थाओंके ध्येय की बड़ी भारी हानि भी है। गूजरात, राजपूताना, मालया और मध्यदेशके वैसे ही सेंकडे अगर राष्ट्रीय महासभाके सभापति धनवान ही बनाये जाते विगमन्दिर, पाठशालाएं और सरस्वती भंडार भस्मिभूत तो आप समझ सकते है कि उसकी और देशकी स्थिति हुए । राजा और प्रजाको अपने प्राणांकी रक्षा करना भी