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ता. 1-3-3२
- जैन युग -
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(अनुसंधान पृष्ठ ३८ से चालु) उन्हें क्या मतलब ? खैर, यह विषयान्तर है। हमें अपने to their respective abilities, that is, in propo- मुख्य विषय पर विचार करना चाहिये। बहुधा धनियों में rtion to the revenue which they respectively इतना विचार (common sense) नहीं होता कि वे इस enjoy under the protection of the state."
भयंकर अन्तर पर विचार करें एवम् यह सोचें कि वे कितने इसका अर्थ है कि राज्य की प्रत्येक प्रजा को राज्य
और भाइयों को दरिद्रावस्था में पहुंचा कर स्वयम् धनी संचालन के लिए अपनी शक्ति अनुसार यानि जितनी पेदा
बने हैं। इसलिए यह काम देश की राज्य प्रणाली अपने वह राज्य के सुप्रबन्ध के नीचे रहकर करता है उसके
हाथ में लेती है और फल स्वरुप धनियों पर नाना प्रकारकी अनुसार, अपनी पैदा का एक भाग राज्य को अपंग कर
कर बिठाकर गरीबों के लाभके लिए उन रुपयोंको लगाती देना चाहिए।
है। साधारण जनता के स्वाथ्य, शिक्षा एवम् बेकारी के इस से यह सिद्ध होता है कि हरएक व्यक्ति को राज्य
प्रश्नोंको हल करने में उस धन का सदुपयोग करती है। संचालन के लिए कुछ त्याग करना चाहिए । धनी हों, वे
धनियों से किस रूपसे यह धन अदा किया जाता है इसको अपनी हैसियत अनुसार ज्यादा करें एवम् गरीब कम् । राज्य
समझके लिये इनकम-टेक्स ( Income tax) का उदाहरण के संचालन-व्यय की दृष्टि से कर का होना आवश्यक है
प्रयाप्त होगा। किसी हद-तक लाभ होने मे इनकम टेक्स ही परन्तु और भी कई एक कारण हैं जिन पर हम विचार
नहीं लगता एवम् एक हद के उपर लाभ हो जाने से फिर करेंगे। उन कारणों पर विचार करनेके पहिले यह जान
ज्यादा टेक्स (Super-tax) लगाना शुरु हो जाता है । लेना आवश्यक है कि राज्य का एक मात्र उद्देश है-अधिक
इंग्लैण्ड में विवाहितों, जिसके घर में पढ़ने वाले ज्यादा हों से अधिक संख्या की भलाई करना। जब राज्य का यह
और चिस धर में कभाने वाले कम और खाने वाले अधिक उद्देश है तो राज्य की आय तो जरूर ही सर्व साधरण के
हो, इन सब को कम कर लगाता है। सारांश यह कि लाभ के लिए खर्च होनी चाहिए। क्योंकि आय कर से ही
हरएक व्यक्ति के उसकी शक्ति के अनुसार कर लगता है। मुख्यतर होती है । इसलिए कर विभाग की भी यही ध्येय
गरीब में तो शक्ति होती ही नहीं इसलिए ऐसी करों का हो जाता है कि कर उन्हीं वस्तुओं पर लगानी चाहिये
भार धनियों पर ही विशेष पड़ जाता है । संक्षेप में हम जिससे देश को, राजनीति, समाज नीति एवम् अर्थ नीति
___ यह कह सकते हैं कि राजनैतिक दृष्टि से अत्यन्त गरीब तीनों दष्टिकोणों से लाभ हो। यह कैसे हो सकता है
एवम् प्रचण्ड धनाड्यपन इन दोनों दशाओं को एक शान्ति इसीका विवेचन हम नीचे करेंगे।
.दायक बीच की दशा में लाने के लिए कर का होना अनिसर्व प्रथम अपने राजनीतिको ही लेते हैं। प्रत्येक
वार्य हैं। परन्तु इसके साथ २ यह बात ध्यान में रखनी राज्य प्रणाली का यह ध्येय होना ही चाहिए कि राज्य में
अत्यन्त ही आवश्यक है कि इस प्रकार की करों से प्राप्त अधिक से अधिक संख्या में जनता सुखी रहे। प्रजा अधिक
धन जन-साधारण के लाभ के लिए ही खर्च होना चाहिए से अधिक संख्या में सुखी उसी समय रह सकती है जबकी
न कि कर्मचारियों की जेबें भर जाय और नाच एवम् अधिक से अधिक संख्या को कम से कम जीवन निर्वाह की बात हो।
(अपूर्ण) चीजें तो मिला ही करें। परन्तु इस बीसवीं सदी में यह
श्री आत्मानन्द जैन गुरुकुल पंजाब, गुजरांवाला बात नहीं। कई आदमी तो आप को अत्यन्त हो धनाढ्य
का षष्ठ वार्षिकोत्सव ईस्टर की छुटियों मे ता. २५-२६ व मिलेंगे जो अपने दिन आनन्द सहित भव्य भवनों में
२७ मार्च १९३२ को श्रीयुत बाबु बहादुरसिंहजी सिंधी बिताते हैं। दूसरी और बहुत-सी संख्या उन गरीब भाइयों
रईस कलकत्ता निवासी की सभापतित्व मे होना निश्चित हुवा की मिलेगी जिनको पेट भर भोजन भी नहीं मिलता। भव्य है। इस शभ अवसर पर जाति के सुप्रसिद्ध सज्जनों तथा भवन तो दूर रहे सड़कों पर ही जीवन व्यतीत करना पड़ता।
विद्वानों के पधारने की पूरी आशा है। शिक्षा से आंतरिक, है! यह इतना अन्तर क्यों ! क्या दोनों मनुन्य नहा : सामाजिक आदि विषयों पर प्रभावशाली व्याख्यान होंगे। पश्चिमीय देशों में इस अन्तर को मिटाने का आन्दोलन हो और विद्यार्थीयों की बनाई हुई वस्तुओं की प्रदर्शिनी और रहा है एवम् भिखारियों की संख्या तो बिल्कुल ही नहीं के
व्यायाम के खेल भी होंगे। सब भाई बहनों से सविनय बराबर हो गई है। परन्तु भारतवर्ष में ऐसा प्रयत्न करे कोन! पधारने की विनंति है। यह काम है स्थानीय राज्य प्रणाली का। राज्य के मालिक
कितिप्रसाद जैन मानद् अधिष्ठाता, तो हम नहीं। भला विदेशी हमारे लिए क्यों सोच करें?
श्री आमानन्द जैन गुरुकुल पंजाब, गुजरांघाला.