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जैन युग.
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हिन्दी विभाग.
वीर संवत् २४५७.
ता.१-२-३२.
जैन शास्त्र में नारी का स्थान. किया गया है। ज्ञान, चरित्र, तप एवं वीर्य के अपूर्व स्फूरण [श्री० पूरणचन्दजी शामसुखा. ]
से जैसे पुरुष कर्ममल को दूर करके सम्पूर्ण निर्मल हो सकते
है, स्त्रीयां भी उसी तरह निर्मल दशा को प्राप्त कर सकती है। जैन शास्त्रों में नारी का स्थान क्या है इसका सम्यक् ।
जैन शास्त्रों में तीर्थकरत्व ही आत्मिक उन्नति का चरम निरूपण करने में जितनी गम्भीर गवेषणा की आवश्यकता है
विकास समझा गया है। वर्तमान अवसर्पिगी में चौबीस उतनी समयाभाव से हो न सकी; तथापि सम्पादक महाशय
तीर्थङ्करो में उन्नीसवें तीर्थकर भगवान 'मल्लिनाथ' स्त्री ही थे। के अनुरोध से इस विषय पर कुछ लिखा रहा हूँ। जैन धर्म का चरम ध्येय मोक्ष है। जैन धर्मानुया
स्त्री रूपसे जन्म ग्रहण करने पर भी कर्म मल को सर्वथा दूर
करके आत्म स्वभाव के पूर्ण विकाश करने की शक्ति अन्यान्य यियों का चरम उद्देश्य यही है कि कर्म पुद्गलका सम्पूर्ण
तीर्थङ्करों के न्याय उनमें भी सम्पूर्ण रूप से थी। सर्वज्ञता क्षय कर मुक्त होना-उनका जीवन इसी ध्येय को लक्ष्य
प्राप्त करने के बाद चतुर्विध संघ रूप तीर्य का स्थापन करके प्रवाहित होता है। इस ध्येय की प्राप्ति एकमात्र
अन्यान्य तीर्थङ्करों की तरह उन्होंने भी किया था और उनके मनुष्य जीवन में ही हो सकती है, एवं इसी कारण से मनुष्य
शासन के नीचे पुरुष गगधर व साधु भी आत्मिक विकास को सर्व प्राणियों में श्रेष्ट गिना गया है। देव योनिमें सामर्थ्य,
के रास्ते में अग्रसर होते थे। स्त्री तीर्थङ्कर के शासनाधीन समृद्धि, भोग आदि मनुष्यों से अधिक है परन्तु मानसिक
रहने में उन्हें जरासी भी आपत्ति नहीं थी, और संघ का व आत्मिक उन्नति मनुष्यों में ही चरम विकाश को प्राप्त
कार्य अन्यान्य तीर्थङ्करों के समय में जैसे निर्वाह होता था हो सकती है। . .
पैसेही इनके समय में भी होता था। यहां पुरुपवेद व स्त्री मनुष्य में प्रधानतया नर व नारी दो विभाग है।
वेद में कोई पार्थक्य स्वीकार नहीं किया गया है-कारण सांसारिक जीवन में नर व नारी सम्मिलित होकर जीवन
उस अवस्था में पुरुष स्त्री दोनों ही निर्वेदी दशा को प्राप्त संग्राममें अवतीर्ण होते है और पारस्परिक सहयोगिता से जीवन को सुखमय बनाने की चेष्टा करते हैं। पुरुष में
प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव की माता मरुदेवी पराक्रम, वीर्य, तेजस्विता का प्राधान्य रहता है व नारी में
इस अवसर्पिल में भरतक्षेत्र से मुक्ति जानेवालो में प्रथम दया, धैर्य, दाक्षिण्य, वात्सल्यादि गुणों का प्राधान्य है।
। स्थान रखती है । इस अवसर्पिनी में इस क्षेत्र से मुक्ति का कठोर व कोमल वृत्तियों के सम्मेलन व सहयोग से सांसारिक
रास्ता एक स्त्री ने ही खोला था यह मातृ जाति के लिये
न जीवन का क्रम विकाश होता है । परन्तु आध्यात्मिक उन्नति बहतही गौरव का विषय है। जैन शास्त्रोने इस विषय का के क्षेत्रमें नर व नारी को इस सम्मेलन की आवश्यकता वर्णन करते समय आत्मिक चरम उत्कर्षता लाभ करने में नहीं है। वहां तो प्रत्येक मनुष्य को, चाहे वह पुरुष हो त्रियों की भी उतनीही शक्ति दर्शायी है जितनी कि पुरुषों की। या नारी, अपने अपने वीप्य से ही आत्मिक उन्नति के पथ राजिमती ने, भगवान नेमिनाथ के विवाह मण्डप को पर अग्रसर होना होगा। कर्म पुद्गल को दूर करने के लिये छोडकर प्रत्यागमन करने के बाद, सांसारिक सुखों को जिस आत्मिक शक्ति के स्फूरण की आवश्यकता होती है तिलाञ्जलि देकर संयम ग्रहण किया और कठोर तपस्या उसमें नर वा नारी का सम्मिलन साधारणतः अनुकूल नहीं करने लगी। इनके असाधारण शारीरिक सौन्दर्य से मुग्ध होकर प्रतिकूल ही होता है। इसी कारण से आध्यात्मिक टोकर संयम से भ्रष्ट होते हए रथनेमि मुनि को राजिमती क्षेत्र में अग्रसर होनेवाले नर या नारी को पारस्परिक सहा- ने अपने संयम व तपस्या के बल से प्रतिबोध देकर संयम यता की आवश्यकता नहीं है।
में पुन: स्थापित किया। इस समय राजिमती ने जिल अआध्यात्मिक क्षेत्र में अग्रसर होते हुए पुरुष जैसे चरम सामान्य संयम और चारित्र की दृढता का प्रदर्शन किया था उत्कर्षता को प्राप्त कर सकते हैं, जैन शास्त्र में स्त्री का भी उसकी तुलना कम ही मिलती है। उसी तरह चरम उत्कर्षता प्राप्त करने का अधिकार स्वीकार (अनुसंधान पृ. १९ पर देखें )
Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain Bhaskaroday P. Press, Dhunji Street, Bombay and published by Harilal N. Mankar for Shri Jain Swetamber Conference at 20 Pydhoni, Bombay s.