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________________ ૧૩૪ - युग - ता. 1-6-32 धर्म और पन्थ. (४) कोई भी सत्य देश, काल और संस्कार से [ले० श्री. पं० सुखलालजी.].. परिमित नहीं होता इस लिये सभी पक्ष देखने और (गतांकसे चाह.) विचारने का और जहां २ खण्ड सत्य नजर आये उस के पन्थ धर्मसे पैदा हुआ है तो भी, अपने को धर्म समन्य करने की वृत्ति होनी चाहिये। प्रचारक मानते हुए भी हमेशा वह धर्म का घात करता है। पन्थ में धर्म न होने से वह राष्ट्र और समाज का जैसे जीवित रक्त और मांस से उत्पन्न नाखून बढता जाता घात करता है । जब राष्ट्र और समाज को एकत्रित होने है वैसे वह रक्त और मांस को ही काटता है। इस लिये का सुअवसर प्राप्त होता है तब वहां निष्प्राण पथ बाधा यह बढे हुए नाखून काटनेमें ही शरीर की कुशलता है। डालता है। सारे संसार में मानव समाज को सङ्गठित इसी तरह से धर्म से अलग पड़ा हुआ पन्थ (चाहे वह धर्म करने के उद्देश से धर्मजनित पन्थों की उत्पत्ति हुई थी। से ही उत्पन्न हुआ हो) जब नाश हो जायगा तब ही . सब ही पन्थ धर्म प्रचार का दावा करते हैं लेकिन पन्थों की मनुष्य को सुख प्राप्त होगा। यहां पर एक प्रश्न जरूर प्रवृत्ति से विपरीत ही परिणाम निकला है । पन्थ का अर्थ उपस्थित होगा कि धर्म और पन्थ के बीच में कुछ मेल है दूसरा कुछ नहीं केवल धर्म के नाम से रक्षित अपना मिथ्या या नहीं, यदि है तो कैसे ? उस का उत्तर सरल है । जैसे .. अभिमान व मानसिक संकुचितता ही है। जीवित नाखून को कोई नहीं काटता (क्योंकि उसे काटने से - राष्ट्र कल्याग और समाज सेवा में यदि रुकावट डालने वाली कोई चीज है तो वह पन्थ का जहर से भरा हुआ दुःख होता है) वैसे पन्थ के अन्दर धर्म का जीवन हो, तो संस्कार ही है। उसे नष्ट करने से भारी हानि होती है। क्योंकि उस में एक श्रीमन्त दिगम्बर, श्वेताम्बर-दिगम्बर के झगड़े में प्राकृितक और विशेषतापूर्ण कई भेद होते हुए भी वहां अपने पक्ष से विरुद्ध, सत्य बर्ताव करें तो दिगम्बर पन्थक्लेश नहीं, प्रत्युत प्रेम होता है, अभिमान नहीं नम्रता होती ना सको , मानेंगे। हिन्द-धर्म मन्दिर के है, शत्रुभाव नहा मित्रता हाता ह, काध नहा शाता हाता है। पास मुसनमान बाजा बजावें तब एक सबा मुसलमान . पन्थ थे, है, और होंगे। परन्तु उस में इतना ही हिन्दओं का दिल खामखाह न दखाने के लिये, उन से परिवर्तन करना होता है कि उस से अलग पड़ी हुई धर्मरुपी ऐसा बर्ताव न करने की प्रार्थना करे तो वे सभी उस को आत्मा को पुन: उस में स्थित कर दिया जाये । अतः हम कहेंगे कि वह पागल बन गया है, काफिर बन गया है. कोई भी पंधगामी हों, परन्तु धर्म के तवानुसार हमें अपने धर्म-भ्रष्ट बन गया है। एक आर्यसमाजी सच्ची भावना से पन्थ में कायम रहना चाहिये । मूर्तिपूजा को मानने लगे तो आर्यसमाज उस की कैसी अहिंसा के लिये हिंसा और सत्य के लिये असत्य का खबर लेगी? इसी तरह से पन्थ, सत्य और एकता में व्यवहार नहीं करना चाहिये, पन्थ में धर्म का प्राण फूंकने के रुकावट डालता है । अर्थात् हम स्वयं अपने २ पन्थमय लिये सत्याग्रही दृष्टि होनी चाहिये । इस दृष्टि वाले के संस्कार से सत्य और एकता दूर कर रहे हैं । इसी कारण लक्षण निम्न लिखित हैं: से पन्थाभिमानी बडे २ धर्मगुरु और पण्डित कभी एक (१) जो हम मानते और करते हैं, उस का हमें दसरे से नहीं मिलते जब कि सामान्य जनसमूह परम्पर सम्पूर्ण ज्ञान होना चाहिये और उस पर हमारी इतनी श्रद्धा एक दूसरे से सरलता से मिलती है। और नियन्त्रण होना चाहिये कि दूसरको सरलता और जब पन्थगामी धर्मगुरु (जो कल्याण का दावा करते हैं) दृढता से समझा सकें। परस्पर एक दूसरे से सन्मान से बर्ताव करें, साथ मिल कर (२) अपनी मान्यता दनर को समझाते समय जरा सरलता से प्रेम से, काम करें, विवेक बुद्धि से पैमनस्य दुर भी आवेश और क्रोध न आये और ऐसे समय अपनी करें, आपस के झगडे उदारता से निबटाने की कोशिश करें कमजोरी निस्सकोच भावसे मान लें। तब पन्थ में धर्म का प्रवेश हुआ मानना चाहिये । (३) अपनी बात समझाने का धैर्य और दूसरे की हमारा वर्तमान कर्त्तव्य पन्थ में धर्म डालने का है दृष्टि समझने की तत्परता और उदारता होनी चाहिये। यदि ऐसा असम्भव हो तो पन्थ को मिटाने का है। धर्म- . इतना ही नहीं, लेकिन अपने कमजोर और असत्य पक्षको रहित पन्थ से अलग (दुर) रहना यह मानव हित की त्यागने में और सत्यमार्ग स्वीकार करने में प्रसन्नता दृष्टि से लाभदायक है। होनी चाहिये । ['अन्मानंद' वर्ष २ अंक १ उद्धत Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain Bhuskaroday P. Press, Dhunji Street, Bombays. and published by Harilal N. Mankar for Shri Jain Swetamber Conference at 20 Pyrhoni, Bombay
SR No.536272
Book TitleJain Yug 1932
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal N Mankad
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1932
Total Pages184
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size13 MB
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