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૧૨૬ - न युग -
ता. १५-८-32 धर्म और पन्थ.
होने की श्रध्धा होने से पाप करते समय अपने को प्रभु से [ ले० श्री. पं० सुखलालजी.] अलग मानता है । इस लिये उस को न किसीका भय और धर्म में अन्तर दर्शन होता है इस लिये वह मनुष्यको न ही किसीकी शर्म होती है। सन्मार्ग पर लगाता है । पन्थमें बाह्य दर्शन है इस लिये धये मनुष्य को रातदिन, भेद से अभेद की और ले वह बाहर के वातावरण के साथ सम्बन्धित है। और मन- जाता है । पन्थ उस से उल्टी तरफ चलता है। धर्म में सभी ष्यको अन्तर दर्शन से रोकता है। धर्मगुणजीवी और गुणा- सांसारिक झगडे नष्ट हो जाते है, पन्थमें धर्म के नाम से, वलम्बी होने से आत्मा के गुणों पर अवलम्बित है। और धर्म की भावना पर झगडा उत्पन्न होता है, और झगडे पन्थ रूपजीवी और रुपावलंबी होने से बाह्य रूप रंग पर इत्यादि की रक्षा में धर्म लुप्त हो जाता है। अवलम्बित है।
धर्म और पन्थका अन्तर समझने के लिये पानी का पहिले से एकता और अनेदभाव पैदा होता है, और दृष्टांत उचित होगा। पन्थ समुद्र नदी ओर कुवें के पानी समानताकी तरंगें उठती हैं, और दुसर से विषमता बडती जैसा नहीं है, परन्तु घर पर पड़े हुए. वर्तन के पानी के है। पहले से मनुष्य सांसारिक भेद भूल अभेदकी ओर समान-विशेष कर ब्राह्मण के बर्तन के पानी के समान है। झुकता है, और दुसरे के दुःखमें अपना सुख भूल जाता
धर्म आकाश से बरसते हुए शुध्थ पानी के समान है। इस है। और पन्थमें मनुष्य पर दुसरे का दुःख कुछ असर नहीं
के लिये सब स्थान समान हैं। आकाश के पानी का स्वाद करता परन्तु अपने सुखमें ही मग्न रहता है।
एक जगह और, दुसरी जगह और नहीं होता। उस के धर्म में नम्रता होने से उसके अधीन मनुष्य दीन और रूप रंगमें भी भेद न होने से सब उसे हजम कर सकते सरल होता जाता है। चाहे जितनी गुण-समृद्धि और धन- है। पन्थ ब्राह्मण के बर्तन के पानी के समान है, अतः समृद्धि हो तो भी वह अपने को संब से छोटा मानता है। दुसर सब पानी उस के लिये अस्पृश्य हैं। उस को अपना पन्थमें इस से विरुध्ध है। इस में गुण या वैभव न होते ही स्वाद, अपना ही रूप-चाहे जैसा हो-पसन्द आता है। हुए भी मनुष्य अपने को सब से बड़ा मानता है और दस- पन्थगामी प्राणान्त के समय भी अपने बर्तन के पानी को रसे अपने को बडा कहलवाने का प्रयत्न करता है। पन्थ- छाडकर दूसर पाना का हाथ नहा लगायगा। गामी मनुष्य सच्चे जीवन की जांच, मनुष्य के गुणो की
[अपूर्ण.] अनन्तता का ज्ञान और अपनी दीनता का भाव न होने से
स्वी१२ मन सभातायना.
भाशय पत्रि। (न.२.) अपने लघुपन को नही पहचान सकता।
જેન સેનીટરી એસોસીએશન તરફથી આરોગ્નતા धर्म में सत्य की दृष्टि होने से धर्मात्मा पुरुषमें थीरज
અર્થે અને બાળ ઉછેરને લગતું સાહિત્ય પત્રિકારૂપે પ્રકટ और दुसरे का पहलू सत्यता से विचारने की उदारता होती यतु हे से मानना विषय है. मा पनि है, पन्थमें यह बात नहीं। इसमें सत्याभास होने से वह (न. २) २२ती मरे पयो ४0 ४८ ३३ अपन पक्ष को सत्यपूणे मान कर दसरे का पहल विचारने मन तुपयरे मना गछ. मा.
" મંડળના પ્રવાસે પ્રશંસનીય છે, તેની સાથે સમાજ की और उसको सहने की परवाह नहीं करता।
तो वो भने an छे पण यानु धर्म में अपना दोषदर्शम और दुसरे के गुणदर्शन की २९. मा पत्रिन यांयननु परिणाम पानी दृष्टि मुख्य होती है, पन्थमें उस से बिल्कुल विरुष्थ है। ४ व्या३ याना -५क्षा-प्रश्नपत्र-पादिपन्थगामी मनुष्य दुसरे के गुणकी अपेक्षा दोष अधिक चाय ते प्रयास विशेष ०५१६३ . तम तां
છે પણ સમાજને જે સાહિત્યની આજે ઉગુપ જાય છે देखता है, और अपने दोष की अपेक्षा गुग अधिक बतलाने ।
' તે અવશ્ય આ પ્રચાર સમિતિના પ્રયાસો દ્વારા પુર का प्रयत्न करता है, और उसे अपना कोई दोष दिखाई ही . मा भने म पत्रिगान गाया। नहीं देता। धर्मात्मा मनुष्य अपने अंदर और आसपास प्रभु अवश्य सामn over मा था. नि का दर्शन करता है, इस से पाप करते समय उसे प्रभ का भार .. टी. 28 प्रस्ताव
माराय
પત્રિકા નં. ૨. પ્રકાશક જેન સેટરી એસોસીએશનની भय लगता है, ओर शर्म आती है। पन्धगामी मनुष्य को भारी प्रयास मिल भुम. प्र.श्यान, . प्रभु शत्रुनय पर, काशीमें, मक्का, मदीना ओर जेरुसेलममं भेमा मेय. शास. पारसी गली, भीरा २टीट. भु Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain Bhaskaroday P, Press, Dhunji Street, Boinbay 3. und published by Harilal N. Mankar for Shri Jain Swetamber Conference at 20 Pydhoni, Bombay