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________________ +--11T. जैन युग. वीर संवत् २४५७. हिन्दी विभाग. ता. १-५-३१. जैनधर्म और केशर. जैनधर्मकी सभी क्रियायें मात्र संसारसे लेखक-. इश्वरलाल जैन विशारद हि. रत्न. छुटकारा पानेके लिये है, जिसमे हम पूजाकोभी पाठकों को यह भभीभांति विदित है कि जैन मोक्षका एक साधन कह सकते हैं। मंदिरों में केशरका उपयोग बहुतायत से किया जाता दुसरी वात यहभी स्पष्टही है कि जैनधर्मकी है, परन्तु हमें इस पर बहुत कुछ विचार करनेका है, सभी क्रियायें, सिद्धान्त, विचार ऐसे हैं जो कि हमें इस सम्बधमें तीन प्रश्न हो सकते है. हिन्सासे रोकते, और अहिंसाकी ओर ले जाने(१) एक तो यह कि जिनेन्द्र देव के पूजन के बाल है। लिये शास्त्रानुसार केशर चढाना उचित है या नहीं। पूजनमे हमे इन बातोका खास ध्यान रखना (२) दुसरा यदि उचित है तो उसका उल्लेख हाग , होगा कि हम इस क्रियामे हिंसाके भागो नहीं कहां है. और वह केशर कैसा होना चाहिये। होते, अथवा मोह से कर्म बंधन तो नही (३) तीसरा यदि केशर चढाना उचित नहीं करते, अहिंसा धर्मको छोडकर हिन्साकी-ओर तो तो हमें क्या चढाना चाहिये? नहीं जा रहे ? और दुसर बात यह है कि शासकी प्रश्न तीनोंही उपयुक्त और विचारणीय है. मर्यादाका उल्लंघन तो नहीं कर रहे! जैन समाज में अधिरांश व्यक्ति लकीरके फकीर केसरके सम्बन्धमे हमे इन्हीं बातोपर विचार बनकर अपने पूर्वजों और साथियों को जसे करते देखा कर जाना होगा। यदि हम शास्त्रीय द्रप्टिसे इस पर है; वरावर वैसा करते चले जा रहे हैं। उसमें अपनो विचार करे तो भी शासोको तीन विभागोमे बुद्धिसे विचार करनेकी गुंजाइश नही रखी। विभक्त करके हम ऐसे विचार करसकते हैं। परन्तु हां। यहोतो एक टेडा प्रश्न है ? कि एक-मूल मूत्र ग्रन्यांसे, " क्या हमारे पूर्वज मूर्ख थे ? हमारे बाप दादे सभी दुसरे-प्राचीन आचार्यकृत ग्रन्थोंसे, अमुक वात करते है, फिर उसमें ऐसे कुतर्क तीसरा-अर्वाचीन (नवीन) ग्रंन्यांसे, वितर्क क्यों ? मूल मूत्रोमें प्रजाका वर्णन श्री रायपसेणी परन्तु यह कहा जाता हे ' हठधर्म'। पूर्वोक्त मूत्र, श्रीज्ञातामूत्र, और श्री जीवाभिगम आदि मूत्री बात वही कहेंगे, जो पूरे लकीरके फकीर और में उपलब्ध है; उनमे भी प्रथम बात तो यह अवश्य स्पष्ट शब्दोमें कहा जाय तो अन्ध विश्वास के देखी गड है कि उनमे कीसी वस्तुके विषयमे ऐसा पोषक हो चुके हैं, अपने पूर्वजो कोई गल्ती नहीं विधान अथवा आग्रह नहीं, कि अमुक वस्तु अवश्य होतीथी, ऐसा कोइभी दावा नहीं कर सकता और होतीही चाहिये । कहनेका तात्पर्य यह है कि उनमें न हो यह दावा किया जा सकता है ? । पूजन की सामग्नियोका वर्णन खूब होते हुए भी कहीं सौभाग्यवश समाजमें कभी कभी जातिके पर यह नहीं कहा गया, कि अमुक वस्तु अवश्य होनी ATTI चिन्ह मालूम होते हैं। युवक चाहते हैं, कि हम समी हि चाहिये, अथवा किसी चीज के न होनेपर पूजन वातोंका वास्तविक तत्व जाने, और यहि युवकों क्रिया अधुरो है या पूजन ही न किया जाय। को चाहिये, कि प्रत्येक वातको अपनी बुद्धिकी कसोटी पर रगड कर वास्तविक तत्वकी खोन करें। (अपूर्ण.) केशर चढाना अथवा न चढाना इसके विचार Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain करनेसे पूर्व हमें यह सोचना चाहिये कि पूजा किस Bhaskaroday P. Press, Dhunji Street, Bombay लिये है ? और उसके लिये कोन कोनसे साधन and published by Harilal N. Mankar for Shri Jain Swetamber Conference at 20 आवश्यक है ? Pydhoni, Bombay 3.
SR No.536271
Book TitleJain Yug 1931
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal N Mankad
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1931
Total Pages176
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size12 MB
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