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________________ जैन युग. - - Dil वीर संवत् २४५७. हिन्दी विभाग. ता. १५-२-३१. तीर्थ रक्षाका प्रश्न. गौरवस्पद है ? श्री तारंगाका निकालभी असंतोष ( लेखकः-धूलचंद बालचंद जैन.) जनक रहा. श्री केशरियाजी-लेव, श्री पावापुरी, तीर्थ रक्षाका प्रश्न समाजके समक्ष विकटरुप श्री आबूजी, श्री अंतरीक्षजो, श्री शौयपूर, श्री मक्सी लिए पड़ा हुआ है. जैन समाजके तीर्थाकी संख्या पार्श्वनाथ, श्री चंद्रप्रभ तीर्थ-(काशीके नजदिक) आदि अन्य समाजोंसे अधिक हो तो आश्चर्य नहीं, कारण अनेक तीर्थे पर एक अथवा दुसरी आपत्तिके वादल जैनांकी श्रद्धा जन्मसेही उस ओर होती है. वे छाए हुर हैं जिनको हटाने के लिए श्वेतांबर जैन अपना सर्वस्व उसके पोछे अर्पण करदेने में तानिकभी समाजने इस समय तक गुजरातानन्तरगत् श्री अमविचार नहीं करते। दवादकी आणदजो कल्याणजीकी पेढीपरही छोड भारतवर्ष में एक समय हिन्द सम्राटांका रखा हो ऐसा दिखाई देता है। उक्त पेढी बंधारण राज्य था और उनके राज्यमें जैन तीर्थोका उदार आदि के बहाने ले इन प्रश्नोके निकालके लिए अपार संपति व्यव करके किया जाता था। कितने जवाबदारी स्वीकार करनेसे विमुख रही है यह अभी ही नये तीर्थस्वरुप अनूपम दिव्य मंदिर उस समय तक के अनुभवसे सिद्ध हो चुका है। निर्माण किये गये थे और उनको रक्षा के निमित्त जैन कोम एक धनाढय कोम होने परभी अमक बादशाही दस्ताएवजे-सनदें प्राप्त हुई थी। अपने तीली रक्षाके लिए असमर्थ सिद्ध हो यह कितनेही हिन्दु राज्यकर्ताओंने मंदिरोंके खर्च आदि किसी प्रकार ईच्छनीय नहीं है। यह उसके लिए की व्यवस्था के लिए जागिर (Jagir ) गांव-आदि कुछ कम लज्जास्पद नहीं है। लाखों और करोडो का मिल्कतथी दोथी; प्रभावशाली जैन धर्म गुरुओपर जो समाज एक वा दूसरी धार्मिक मान्यताओके पीछ संपूर्ण विश्वास रख तीर्थादिकी रक्षाके लिए अनान्य व्यय करना साधारण बात समझता है उसके तीर्थ प्रवन्ध किए थे। आज पराधीन बनते जावे यह कहां तक सहन हा आज समय विपरीत नजर आता । जिन सकता है ? आजतक तो गाढ निद्रामे सो रहे थे हिन्द राज्यकर्ताओंके पूर्वजों पर जैन तीर्थीको रक्षाका जिसका परिणाम प्रत्यक्ष ही है। अब समय उसे भरोसा रखा गया था उनके वारिशदार (Descen- छोडनेके लिए आगाही करता है। ए वीर नरो! dents) आज रक्षणकी जगह भक्षण करने ही अपना HTTAM उठो और तीर्थ की रक्षा करो. धर्म समझ रहें हैं. 'जैन समाज जैसी व्यापारी कोम रक्षाका प्रश्न गंभीर है। इसके लिए जैन अपने धंधेसेही फुरसद नहीं पाती तो तीर्थ रक्षाका श्वेतांबर कॉन्फरन्स, आगंदजी कल्याणजीकी पेढी, ध्यान तो उसे कहांसे आने लगा' यह समझ मनमाने जैन एसोसिएशन आदिके प्रतिनिधि मिल एक हुकुमों के आधीन एक अथवा दूसरी जाल डालकर संयुक्त स्वतंत्र कमिटी जैन कॉन्फरन्सके सम्मेलनमें यक्तिसे राज्यकर्ता अपना कार्य सिद्ध करनेकी बाजियें नियुक्त करें। इस समितोमें जैनोके सर्व प्रान्तोके रचे उसमें कोई आश्चर्य नहीं। प्रबन्धादिका कार्य अधिकसे अधिक दस अन्य सदश्री मित्र पालीताणाका प्रथमपानी स्योकी उस प्रांतकी कमिटी द्वारा किया जावे. यह शायदही किसी व्यक्तिसे अज्ञात रहा होगा. पुरानी कमिटी 'मुख्य तीर्थ रक्षक कमिटी' के आधीन रहे। सनदोंका उपयोग कहां तक लिया गया यह बतानेकी इस प्रकारकी व्यवस्था यदि जन समाजके अग्रेसर आवश्यक्ता नहीं है. रुपै ६००००) का वार्षिक टेक्स ( अनुसथान पे 31 8५२ नुवा.) जैन समाजके आगेवानोने-अमुक नाम मात्रकी श! Bhaskarodar.Press. Dhuiji Street, Bombay Printed by Mansukhlal Hiralal at Jain कलोभमं फसकर-देना कबुल कर तीर्थ रक्षाके and published by Hurilal N. Mankar for कार्यकी जो हंसीकी है यह जैनोके लिए कहांतक Pydhoni, Bombay 3. Shri Jain Swetamber Conference at 20 तीर्थ रक्षाका जैन एसोसिटी जैन कार
SR No.536271
Book TitleJain Yug 1931
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal N Mankad
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1931
Total Pages176
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size12 MB
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