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________________ श्रीमान् तीर्थकर महावीर और वेद कामनाओंके लिए लौकिक देवोंकों मानतेथे वैसेही लोकोत्तर सिद्धिके लिए अर्हनकों मानतेथे. वेदोंमें अर्हन् देवके संबंध में मंत्र है. पुराणोंमेंथी उल्लेख अनेक स्थल परह. वैदिक स्तोत्र पाठों में अरिहंतोंको विष्णु के अवतार मा. ऋषभ देवकी महिमा भागवत पुराण में वर्णन की, अरिनेमी तीर्थंकरका वर्णन वेदों है. अर्थात् महावीर के समयतक जैन और वैदिक भिन्न नहीं समझे जाते थे. परंतु उपासना भेद मात्र था. भारतीय धर्मकी जबसे भारत में तीन शाखाएँ हुईं तसे परस्पर फूट फैलने लगी. क्षणिक सिद्धांति, नित्यसिद्धांति और नित्यानित्य सिद्धांति, यह तीन भेद सूक्ष्म रूपसे पडे और बढते यहां तक बढे कि - एक दुसरे hi बुरा बतलानाही अच्छा समझा जाने लगा. वेदों संबंध हम इतनी बात जोरके साथ कह सकते हैं कि - जिस अवस्था में वेद होने चाहिये वेसी अवस्था वेदोंकी नहीं रही. ऋषभदेव और भरतके समयमें वेद पूर्णागरूपमें थे. उस समय जैन धर्मानुयायी वर्ग संसारकी व्यवस्थाके लिए वेद पढतेथे. उसके पश्चात् वेदिक ऋषियोंके कुछ २ मंत्र कंठस्थ रहे परंतु उन विज्ञानात्मक वेदोंकास होनें लगा. लाखो मंत्र नष्ट हो गये ऐसी दुर्दशा होते देख अवशेष भागकों बादरायण व्यास के चार शिष्योंनें चार संहितोंका रूप देकर संग्रह करदिया. निगह पेल अंगीरा और जैमिनी इन चारोंने संग्रहकर ऋक्, यजु, साम और अथर्व ऐसे चार नाम वेदोंके रख ५५ करदी. दिये. सूची, निरुक्त, उनपर बनगये वेदोंका सच्चा अर्थ बतलानेवाले अनेक ब्राह्मण ग्रंथथे. उनकाभी अधिक भाग लुप्त हो गया. इस समय थाडेसे ब्राह्मण ग्रंथ प्राप्त है. इधर सायण महिधरादिक भाष्यकारोंनें साम्प्रदाकि हमें फँस कर - वेदों के अर्थों में गडबड तथापि इतना हम दावे के साथ कह सकते हैं कि - रहे सहे भागकों संहिताओंका रूपदिया जानेंपर तथा सूची निरुक्तादि बन जानेंसे अवशेष भाग जो था वह आजतक कायम रह गया यह अवश्य सौभाग्यकी बात हुई - अवशेष भाग मेंभी बहुत कुछ मिल सकता है. विज्ञानात्मक दृष्टिसे आजभी वेदोंका अर्थ किया जाय तो कुछ बुरा नहीं है, इस लिए वेद आजभी उपादेय है. अनेक बातें आजभी उनमें मिल आती है. किन्तु बौद्धोके समयमें क्षणिक बादका जोर रहा उस समय में गुप्तरूपसे वेदानुयायियों में वाममार्गकी प्रबलता होने लगी. मांस म दिरा सेवन करना मामूली बात हो गई. नरमेधतक होनें लगा. न मांसभक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने " वैदिक कहने लगे. प्रकृति उपासकों में शाक्त कहलानेवाले वाममार्गी जगदंबाके नाम पर बलीदान करनें लगे. उनका अनुकरण अच्छे २ वैदिक विद्वान्भी करने लगे और कहने लग गये कि"यागिया हिंसा हिंसा न भवति" इस प्रकार घोर हिंसा होने लगी ऐसी दशामें कुशल जैनाचार्योंने अहिंसक दशार्म रहकर जितना कुछ हो सका उतना अहिंसामय संसारको (C
SR No.536263
Book TitleJain Yug 1926 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Dalichand Desai
PublisherJain Shwetambar Conference
Publication Year1926
Total Pages88
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Yug, & India
File Size9 MB
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