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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूर्तियाँ पायी गई हैं, जो देश के अन्य भागों को भी भेजी जाती थी । श्रीराम-परिवार के वे अभिन्न अंग . हो गये थे, इस तथ्य को कलाकार नहीं भूल सकते थे। राजस्थानी तथा पहाड़ी चित्रकला में श्रीराम चरित का अंकन प्रचुर रूप में मिलता है। वहाँ हनुमानजी को उचित स्थान प्रदान किया गया। हनुमान की पंचमुखी विशाल पाषाण मूर्तियों गुजरात में तलना नामक स्थान से तथा राजस्थान में जोधपुर से मिली हैं। हनुमानजी की अनेक मूर्तियाँ भारत के बाहर स्याम, कंबोडिया, जावा, सुमात्रा आदि में मिली हैं। वहाँ के जिन प्राचीन मंदिरों में रामकथा का अंकन मिलता है। उनमें हनुमानजी की आकृतियाँ निश्चितरूप से उत्कीर्ण हैं। उन देशों में होने वाली रामलीलाओं में हनुमान बनने वाले पात्र अपने को बहुत गौरवान्वित मानते हैं । विंध्य क्षेत्र के चंदेल-शासक हनुमान के विशेष भक्त थे। उनके समय में हनुमान की अनेक पूज्यप्रतिमाओं का निर्माण उस क्षेत्र के विभिन्न स्थलों में हुआ । इतना ही नहीं, चंदेल-राजाओं ने शासन द्वारा प्रचलित अपने सिक्कों पर हनुमान की आकृति का अंकन कराया । हनुमान के पूज्य श्रीराम की आकृति को सर्वप्रथम विजयनगर साम्राज्य के शासक थिस्मलराय प्रथम ने 1570-71 ई० में अपने सिक्कों पर अंकित कराया । उसके बाद 1605 ई० में मुघल सम्राट अकबर ने सोने तथा चांदी के कतिपय दुर्लभ सिक्के जारी किये, जिन पर सीता तथा राम दोनों की छवियाँ अंकित हैं। उन पर तत्कालीन नागरी लिपि में "रामसीय” लिखा है । विंध्य क्षेत्र को यह गौरव प्राप्त है कि यहीं सबसे पहले श्रीराम की पूजा का आरंभ हुआ । इस क्षेत्र के पन्ना जिला में स्थित नचना नामक स्थान में रामकथा से अंकित अनेक कलापूर्ण शिलापट्ट मिले हैं। नचना से प्राप्त एक शिलापट्ट पर वह दृश्य अंकित है जिसमें मेघनाद द्वारा बद्ध हनुमान को रावण की सभा में उपस्थित किया गया। इन पट्टो का निर्माण-काल लगभग ई. 500 है। संभवतः उस समय श्रीराम के मंदिर का निर्माण नचना में हुआ, जिसमें ये शिलापट्ट लगाये गये । नचना के अलावा विंध्य क्षेत्र से देवगढ़ नामक स्थान से भी रामकथा के कई गुप्तकालीन शिलापट्ट मिले हैं। इनमें राम-हनुमान मिलन तथा हनुमान द्वारा द्रोणगिरि को लाना उल्लेखनीय है । महाकवि वाल्मीकि ने रामकथा का प्रणयन इसी भूभाग में किया । प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल चित्रकट के समीप ही वाल्मीकि आश्रम विद्यमान था, जिसके प्रमाण स्मारकों के रूप में आज तक वहाँ सुरक्षित हैं । वीरभाव में हनुमान की पूजा-परंपरा आज तक व्यापक रूप में विद्यमान है। राक्षसों के संहारक, असंभव कार्यों को भी पूरा करने के सामर्थ्य वाले, नैष्ठिक राम-भक्त हनुमान को परवर्ती भारतीय देव. मंडल में प्रमुख स्थान प्रदान किया गया । यह स्वाभाविक ही था । भीषण संकटों से त्राण प्रदान करनेवाला उनका वीर-रूप जन-मानस को विशेष रूप से मान्य हुआ । भारतीय संस्कृति के प्रबल रक्षक के रूप में वे आदत हुए । लोक-नायक, मयौदा-पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्श का निर्वाह हनुमानजी के द्वारा सम्यक प्रकार से किया गया । उनके उपर्युक्त गुणों के कारण हनुमानजी हमारे लिए मंगलदायक देवता के रूप में पूज्य हुए हैं। 106] [ Samipya: April, '91-March, 1992 For Private and Personal Use Only
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
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