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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरातत्व में हनुमान कृष्णदत्त वाजपेयी* मर्यादा-पुरुषोत्तम श्रीराम के अनन्य भक्त के रूप में श्रीहनुमान का नाम प्रख्यात है। अत्याचार के प्रतिनिधि रावण तथा उसके सहयोगियों के दमन में हनुमानजी ने अतुलित बल का परिचय दिया । इस कार्य में तथा भार्य-संस्कृति के प्रसार में श्रीराम के नेतृत्व में उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाही । हनुमान को कालांतर में जो प्रभूत सम्मान प्राप्त हुआ, उसके मूल में ये कारण विद्यमान हैं । आयेतिहासिक युग में आर्यो-द्वारा अधिकृत क्षेत्र के दक्षिण में राक्षस-वर्ग ने अपना आधिपत्य बढ़ाने का प्रयास किया था । लंकाधिपति रावण के समय में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से बढ़ी । इसका पता कतिपय पुराणों तथा वाल्मीकि रामायण से चलता है। रावण के पिता पुलस्त्य आर्य थे, पर माता केकसी अनार्या थी। राक्षसों के आचार-विचार आर्य-परंपरा से भिन्न थे। वैदिक देवों, ऋषि-मुनियों तथा ब्राह्मणों द्वारा मत राजनीतिक तथा सामाजिक व्यवस्था में राक्षसों का विश्वास नहीं था। अनेक कारणों से वे आर्यपरंपरा से असंतुष्ट थे। उनकी विरोध-भावना क्रमशः बढ़ने लगी और वे आर्य-परंपरा का मूलोच्छेद तक करने के उद्योग करने लगे । पाशविक शक्ति के सहारे वे आर्य-संस्कृति को नष्ट कर उसके स्थान पर राक्षस-तंत्र का व्यापक प्रसार करने के स्वप्न देखने लगे। रावण बहुत शक्तिशाली शासक था । उसने साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपना कर राक्षसीय प्रभुत्व का विस्तार कर लिया । असुरों के एक वर्ग को भी उसने अपने साथ कर लिया । उसके प्रतिद्वंद्वी सुर या आर्य लोग रावण की बढ़ी हुई शक्ति का सामना करने में अपने को असमर्थ अनुभव करने लगे। कुछ समय बाद रावण की शक्ति दुदाँत हो ऊठी । वह अपने को महान् विजेता तथा किसी अन्य द्वारा अपने को अविजित समझने लगा। विंध्य-क्षेत्र के बड़े भूभाग पर तथा उसके दक्षिण विस्तृत क्षेत्र पर रावण की धाक परी तरह जम गई । वह विंध्य के उत्तर के आर्य राज्यों को भी एक-एक कर समाप्त करने की बात सोचने लगा । उसके अनेक सहायकों ने उसकी- महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति में रावण को सहायता दी। विध्यक्षेत्र के आश्रमों में निवास करने वाले ऋषि-मुनियों को राक्षसों द्वारा संत्रस्त किया गया । मूल उद्देश्य यही था कि वैदिक यज्ञों को संपन्न न होने दिया जाये तथा क्रमशः वैदिक मान्यताओं को समाप्त कर दिया जाये। रावण के शासनकाल में राक्षसों के अत्याचार बहुत बढ़ चुके थे। उत्तर भारत में तभी एक विशेष घटना घटी। कोसल के प्रसिद्ध इक्ष्वाकु-वंश के राजकुमार श्रीराम ने अपने पिता श्री दशरथ के वचनों का आदर कर, स्वेच्छा से चौदह वर्षों का वनवास अंगीकार कर लिया। इसके लिए उन्हें अयोध्या के दक्षिण उस पर्वतीय विस्तत क्षेत्र में जाना पड़ा जो पवतों और घने वनों से आच्छादित था। श्रीराम के इस लंबे बसवास का सबसे बडा लाभ हआ कि आयोवते की दक्षिणी सीमा की और से उत्तर को बढता हआ टागोर प्रोफेसर और निवृत्त अध्यक्ष, डिपार्टमेन्ट ऑफ एश्यन्ट इन्डियन हिस्टरी. कल्चर एन्ड आर्कियोलाबी, मागर युनिवर्सिटी, सागर, मध्यप्रदेश . . पुरातत्त्व में हनुमान] [103 For Private and Personal Use Only
SR No.535779
Book TitleSamipya 1991 Vol 08 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravinchandra C Parikh, Bhartiben Shelat
PublisherBholabhai Jeshingbhai Adhyayan Sanshodhan Vidyabhavan
Publication Year1991
Total Pages134
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Samipya, & India
File Size80 MB
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