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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અંક ૧] ચોવીસ તીર્થકર સ્તવન एक पत्र में) यह लिखा हुआ मिला है इस लिये “अथ चौबीसे तीर्थकरनु तदन लामानन्दजी कृत दोनों प्रतियों के पाठ भेद महित इम अप्रकाशित लिख्यते" लिखा हुआ है । इमलिये यह आनंदस्तबन को यहां प्रकाशित किया जा रहा है। घनजी का ही होना चाहिये । अन्त में उनका सेठियाजी वाली प्रति में इस स्तवन के पहले नाम भी है। चोवीस तीर्थकर स्तवन ऋषभ जिनेसर राजीर, मन माय जुहारोजी। प्रथम तीर्थ कर) पति राजिउं परिग्रह परिहारोजी ॥१॥ विजया नंदन बंदीए सब पाप पलाय जी । जिम सुखसुं चिरनंदीए सुर नर मन भाय जी ॥ संभव भव भय टाल तो, अनुभव भगवंत जी। मलपति गज गति चालतो, सेवै सुर नर संत जी ।।३।। अभिनंदन जिन जय करू करूणी* रस धारजो। मुगति सुमति नायक वरू मद मदन निवार जी ॥४॥ सुमति सुमत दातारू हु प्रणमुं करजोडि जी। कुमति परिहार कुं, अंतराय परि छोड़िजी ||५|| पदम प्रभु प्रताप सु परि रादि विभंग जी। जिम रवि के हरि व्याप सु, अंधकार मतंग जी ॥६॥ श्री सुपास निज वास तें, मुझ पास निवास जी । कृपा करी निज दास नइ, दीजइ सुख बाम जी ।।७।। चन्द्र प्रभु मुख चंद लो, दीठां सब सुख थाय जी। उपसम रस पर कंद लो, दुख दालीद्र जाय जी ।।।। सुविधि सुविधि विधि दाखव रखइनिज पासजी। नवम अठम' विधि दाखवइ, केवल प्रतिमासजी।। सीतल सीतल जिम अमी, कामिन फलदायजी।भाव सुं तिकरण सुध नमी, भविअण निरमाइजी ॥१०॥" श्री श्रेयांस इग्यारमो, जिनराज विराजे जी। ग्रह नवि पीडइ बारमो, जस सिर परें गाजै जी ॥११॥ वासुपूज वसु पूज्य नरपति, कुल कमल दिनेशजी। आस पूरे सुरनर जती, मन तणीय जिनेश जी ।।१२।। विमल विमल आचारणी, तुझ सासम चाह जी। घट पट कट निरधार नइ जिम दीप(द) उमाह जी ॥१३॥ अनंत अनंत न पामिये, गुण गण अविरास जी। तिन तुझ पद कज कामीइ, गणधर पद पासि जी ॥१४| धरम धरम तीरथ करी, पंचम गति दाइजी। एकंतिक मत मद हरी, जिण बोध सकाइजी ॥१५|| संति संति करि जग धणी, मृग लंछन सोहेजी। निर लंछन पदवी भणी, भवियण मन मोहा जी॥१६॥ कुंथनाथ तीरथ पति, चक्र धर पद धार जी। निरमल वचन सुधाजी राखे निज पास जी ॥१७॥ श्रीअरनाथ सुहामणो अरें संतित साधै जी । वंछित फल दाता भणो जे वचन आराधे जी ॥१८॥ मल्लीवल्ली कामना, वर सुरतरू कहीय इजी। चरण कमल सिरनामिता, अगणित फल लहियइ जी।।१५।। मुनि सुव्रत सुव्रत तणी, मणि खान' सुटावइजी। वंछित पूरण सुरमणि रमणी गुण गावइजी ॥२०॥ नमि चरणे चित राखियै, चेतन चतुराइ जी । परमारथ सुख चाखिये मानव भत्र पाइजी २शा नेमनाथ ने एकमना, साइक नवि लागि जी । तिण कारण सर धामणी, जन गुण मागि जी ॥२२॥ पारस महारस दीजिये जन जाच न आवे जी। अभयदान फल लीजिय', असरण पद पावे जी ।।२३।। १ तीरथि, २ जागीयो, ३ तप, ४ पति, ५ वरूणी, ६ मुगति, ७ , ८ विछोड, ९ नजि वास गई। दुष्ट, २ अटम, ३ नाख, ४ जिन परि, ५ नरेमनी ६ भव आचारनं ७ धारि, ८ दानारमति, ९ मुवार । १ विपदी जसनारजी, २ अरिसंतत, ३ दायक, ४ खांकि ५ कामना दायक, ६ नाथ मे. ७दीजीयें। For Private And Personal Use Only
SR No.533936
Book TitleJain Dharm Prakash 1964 Pustak 080 Ank 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1964
Total Pages16
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size6 MB
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