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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २] યશસ્વતસાગરણ સંકલિત માન–મંજરી [31 जा रहा है। दिगम्बर भंडारोमें और भी कई और प्रत्येक पंक्ति ३६ अक्षर है। आदि ऐसे श्वेताम्बर ग्रंथ मिले है जिनकी प्रतिमा अंतके श्लोक इस प्रकार हैं :वेताम्बर भंडारोमें. भी नहीं हैं। वास्तव में स्तुत्वा सारस्वती सारस्वती विद्या गुरुं गुरुं । हमारे हस्तलिखित ग्रंथ संग्रहालय समय-समय स्व सिद्धये पराक्षेप प्रसिद्धयै मानमंजरी ॥१॥ पर इधर-उधर बिखर कर बहुत ही अस्तव्यस्त हो गए। जिम किसीको जो अच्छा ग्रंथ हाथ मान्य मान मता मंद-मोद मोदित मानस । लग गया, उसने अपने संग्रह में उसे रख लिया मान सन्मान सिद्धयर्थ मय मेव झुपक्रमः ॥२।। कि दुमरोंको दिखाने में भी संकुचित वृत्ति स्वसंवेदनतस्तत्वरूपं चांतर्व्यवस्थितं । रही। इस लिए उनका प्रचार अधिक नहीं हो साभिधेयं ससम्बन्ध बहिः शब्दतयोच्यते ।।३।। पाया। यबपि मान-मंजरीकी प्राप्त प्रति नई सी वक्तृत्वं च कवित्वं च विद्वत्तायाः फल द्वयं । है, इस लिए उसका मूल आदर्श प्रति किसी वक्तृत्वं नो कवित्वं नो पंडितोपि नरः खरः ||४|| श्रेताम्बर भंडारमें अवश्य मिलना चाहिए । बाचां प्रवृति किल शब्द निष्ठा शब्दा: अभी तक बहुत सी यतियों आदिके ग्रंथ पुनाकरण प्रतिष्ठा । भंडार अज्ञातावस्था में पड़े हैं, प्रयत्न करने तस्याप्यनेक त्वमत्रांकनीयं पर भी वे उसे दिखाते तक नहीं । एसी ही त्पाणिनीयाऽनुगतं वदति ॥५॥ संकुचित वृत्तिसे हजारों ग्रंथ नष्ट एवं लुप्त तक अन्तहो गए। इधर बहुतसे ग्रंथ भंडार बिकते जा रहे है और कहीं की प्रतियां कहीं ही पहुंच चारित्रसागर गुरो प्रथितस्य शिध्य, जाती है पता ही नहीं लगता । हमारे कल्याणसागर गुरुर्गरिमैक सिंधुः । पूर्वजोंने कितना परिश्रम करके जगह-जगह विद्वयश प्रथम सागर तद्विनेयः, ज्ञान-भंडार स्थापित किए और आज उन्हीं के राश्वद् यशस्थ दुधिस्त पगच्छवत्ती ॥१॥ वंशज उन ग्रंथों के नष्ट होने में निमत्त कारण । प्रिय: शिष्योऽस्मदीयोयं विचादिम सागरः । बन रहे हैं। तच्छिष्यो मान सन्मामा तदर्थोऽयमुपक्रमः ।।२।। मानमंजरी' यशस्वतसागरकी मौलिक स्वितसागरको मौलिक ग्रंथात् तरात् समुद्धृत्य लिखिता मानमंजरी । रचना नहीं है, इस लिए इसके ५ परिच्छेद संशोध्य वाचनीयेयं, विद्भिर्मयि कृपापरैः ॥३॥ या प्रस्तार में से दो में यशस्वतसागर गणि आसन्न पष्टि सनृपाल मितषचांदि, समर्थितायाम्' और पिछले दो में 'संकलितायां' राधायो तिथौ भृगुदिने कर संस्थ चंदिरे । शब्द प्रयुक्त है। अंतिम प्रशस्तिमें रचना युक्तार्थयुक्ति फलितां शुभ मानमंजरी, कालका भी उल्लेख है, पर कुछ पाठ. अशुद्ध यशस्वदुदधिय॑लिखत् सुमंगलम् ।। होनेसे संवत् स्पष्ट नहीं हो पाया है। प्राप्त प्रति ४० पत्रोंकी है, प्रत्येक पृष्ट में ११ पंक्ति समाप्ताचेयं मानमंजरी नाम मंजीरीम् । " For Private And Personal Use Only
SR No.533919
Book TitleJain Dharm Prakash 1962 Pustak 078 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1962
Total Pages20
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size10 MB
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