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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir અંક ૧૧ ] - સહજકીરિચિત તીન છેદ કે સુત્રાર્થ કી ખોજ (1४३) के सूत्रार्थ की त्रुटित रूपमें प्राप्त प्रति का परि- गच्छे खरतर श्रीमत् क्षेमशाखा बृहत्तरा । चय दिया जा रहा है। सत्रहवी शताब्दी के तत्र जाता ज्ञानरत्नसारा सारश्रियापद्म ॥२॥ तत्र खरतर-गच्छ के महोपाध्याय सहजकीर्ति के ___ वाचकश्रीरत्नसारा . शिष्याः श्रीहेमनंदनाः । कल्प, बिहार और निशीथ इन तीन छेद-सूत्रों के अर्थ २२००० श्लोक-परिमित लिखित है, गुरुभक्तिपद्मिनीनां समुल्लासे दिवाकराः ॥३॥ पर अभी उनमें से केवल निशीय-सूत्रार्थ की तच्छिष्याः कृतं पंचांगमहाव्याकरणाः स्फुटम् । ही एक त्रुटित प्रति मुर्शिदाबादसे प्राप्त कलकत्ते प्राप्तप्रसारं फलवर्द्धिस्थित पार्श्वजिनेशितु ॥४॥ के जैनभवनके ग्रंथालय में मिली है। प्राप्त- कल्पस्य व्यवहारस्य निशीथस्य महात्मनः । , प्रति के प्रारंभ के ४० पत्र नहीं है। ४१ से अक्षरार्थस्त्रयाणां हि श्रीसहजादिकीर्तिभिः ॥५॥ ७७ तक के पत्र हैं इसकी प्रशस्ति से मालूम स्वज्ञानहेत्वे चक्रे श्रीमजेसलसत्पुरे । . . . . होता है कि इस सूत्रार्थ की रचना जैसलमेर द्वाविंशति सहस्रपमानो विशदवभवः ॥ ६ ॥ में संवत् १७०० से संवत् १७११ के बीच में हुई हैं; क्योंकि प्रशस्ति में उल्लिखित जिन द्वयोष्टीका समालोक्य चूर्णिमेतस्य' सग्नितः । . रत्नसूरि का समय यही है।' गंभीरार्थस्य गंभीरप्रायश्चितविधेस्तदा ॥ ७ ॥ महोपाध्याय सहजकीर्ति खरतरगच्छ की सूत्राथव्याकरणानां भ्रांति काचिद्भवेदिह । श्मशाखा के सत्रहवी शताब्दी के सुप्रसिद्ध विद्वद्भिः सापनेतव्या धीरा हि दोषभेदितः ।।८।। विद्वान हैं। व्याकरण, शास्त्र के भी वे महा- सुखाभिलाषीभिर्धार: सुरभिः पंकजेपमः । पंडित थे। निशीथसूत्रार्थकी प्रशस्तिमें भी पंचांग हृत्पद्मसरसि स्फारो धारणीयोऽयमादरात् ॥९॥ महाव्याकरणकी रचना का भी उल्लेख है। ... उक्त प्रशास्ति में उल्लिखित 'पंचांग महासंस्कृत और राजस्थानी दोनों भाषाओं में गद्य-पद्य व्याकरण' कोई स्वतंत्र-ग्रंथका नाम हैं, या में लगभग आपकी ४० रचनाएँ मिलती है, पर, उनकी व्याकरण, कोश संबंधी भिन्न भिन्न रचनाखेद है, उनमें से एक भी रचना अभीतक : ओंका वह समुच्चयरूप से सूचक है, इसके प्रकाशित नहीं हो पाई। आपके संबंध में कई विषय में निश्चितरूप से.. कुछ कहा नहीं जा वर्ष पूर्व 'जैन सिद्धान्तभास्कर' में मेरा एक - सकता, पर. उनका शब्दार्णव व्याकरण (धातुलेख प्रकाशित हो चुका है। अब नीचे पाठ)-रज्जुप्रज्ञाव्याकरणप्रक्रिया। एकादिशत. निशीथ सूत्रार्थ की प्रशस्ति दी जा रही है। पर्यंतशब्दसाधनिका, सारस्वतवृत्ति, नामकोश .."॥ इतिश्री. निशीथ-सूत्रार्थे किञ्चित् छ कांड, ये ग्रंथ - मिलते है। संभव है ये भाष्यार्थमिश्रिते यतीन्द्र-श्रीसहजकीर्तिविरचिते पंचांग महाव्याकरण के ही अंतर्गत हो, पर विंशतितम उद्देश: २० तत्समाप्तोऽयं निशिथ- यदि पंचांग महाव्याकरण' इस संज्ञासे ओर सूत्रार्थः ।।" भी कोई व्याकरण संबंधी उनकी रचना हो, तो गच्छाधीशे महाप्रज्ञे 'श्रीजिनरत्ननामनि । उसकी खोज की जानी चाहिए। पुण्यप्राग्भारभावेन प्रौढराज्यं प्रकुर्व्वति ॥१॥ प्रशस्ति में उल्लिखित कल्प, व्यवहार और : 4NE.NE M . For Private And Personal Use Only
SR No.533896
Book TitleJain Dharm Prakash 1959 Pustak 075 Ank 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Dharm Prasarak Sabha
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1959
Total Pages20
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Prakash, & India
File Size10 MB
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