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श्रीमद् देवचन्द्रजी का एक अप्रकाशित पढ़
श्वेताम्बर जैन समाज के अध्यात्मी सुनियों में श्रीमद्देवचन्द्रजी का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । उनकी प्रत्येक रचना तत्त्वज्ञान, अध्यात्म, भक्ति और स्वाद्वाद से ओतप्रोत है । उनकी रचनाओं का संग्रह स्वर्गीय बुद्धिसागरसूरिजीने विशेष प्रयत्नपूर्वक करवाकर अध्यात्मज्ञानप्रचारक मंडल- पादरा से २-३ भागों में प्रकाशित करवाया था। उसके पच्छात् हमारी खोज से कुछ रचनाएँ और मिली, जिन्हें यथासमय प्रकाशित कर दिया गया था। अभी saaratara की हस्तलिखित प्रतियाँ, जो जयपुर के आदर्शनगर के दिगंबर जैन मंदिर में देखने को मिली, उनमें एक गुटका सं. १७४८ का लिखा हुआ बनारसीविलास का है । उसमें उसके अन्त में कुछ पद एवं स्तवन आनन्दवन, समयसुन्दर, बघु आदि • कवियों के भी हैं। एक पद श्रीमद् देवचन्द्रजी का भी उनमें मिला, जो अभी तक अप्रकाशित होने से यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है । इस पद में बड़े ऊंचे आध्यात्मिक भाव है । सुमति आत्मा से संबोधित करते हुए कह... रही है कि अपने अनुभव घर में वसो ।
आत्मा से मंदि की प्रेरणा ( राग मा ) 'पीयु मोरो हो, सांभलि पीयु मोरा हो । निज अनुभव घर में बसौ,
ए मानिनि होरा हो || १ || सां||
मिध्यात दूरे हरो, करो ज्ञान सजोरा हो ।
पर जीप की मति लागकै,
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ले. अगरचन्द नाहटा
समता कहे साहिब अम्हें, सेवक नित तोरा हो ।
क्युं भूलत बोरा हो ॥सांगा
ए कुल्टा आई कहा,
सो तो कहो भोरा हो ॥३॥ सां०॥ राचि रहे इनकी संगतयुं,
ज्यू शशी चित्त चकोरा हो । मुंह मिठी दिलरी छिठी ए,
अनुभव की चोरा हो ॥४०॥ देवचन्द्र अरू सुमति मिले जब,
भागो भ्रम सोरा हो ।
तब निजगुण इक क्लभ लागत,
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अंवर न लाख करोरा हो ||५|| सां०॥
यह पद श्रीमद् देवचन्द्रजी के प्रारंभिक "जीवन में रचित है। सिन्ध प्रान्त में उनकी आध्यात्मिक रूचि बढ़ी, और वहां ज्ञानार्णव को ढालबद्ध बनाया 1 उसीके आसपास का
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यह पद हैं । अहमदाबाद और सौराष्ट्र 'में शेष जीवन उन्होंने विताया था । अतः 'उधर के भंड़ारों में खोज करने पर और भी रचनाएँ मिलनी चाहिए। गुजरात - सौराष्ट्र के ज्ञानभंडारों में खोज की जाय ।